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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

में सहज ही बाधा पड़ सकती है और पड़ रही है। यदि हम अपने मनमें यह विश्वास करके बैठ जायें कि हिन्दू और मुसलमान जबतक परस्पर खान-पान और विवाहका सम्बन्ध न करें तबतक एक नहीं हो सकते तो हमारे बीच में एक कृत्रिम दीवार खड़ी हो जायेगी जिसे गिराना, हो सकता है, लगभग असम्भव हो जाये। और फिर उदाहरणके तौरपर यह समझिए कि अगर मुसलमान लड़के हिन्दू लड़कियोंसे प्रेम-याचना करना विधि-सम्मत मानने लगें तो हिन्दुओं और मुसलमानोंकी दिनोंदिन बढ़ रही एकताके मार्गमें बहुत ही गम्भीर बाधा पड़ जायेगी। अगर हिन्दू माता-पिताओंको ऐसी किसी बातकी शंका [भी] हो गई तो आज उन्होंने मुसलमानोंको अपने घरों में जो खुला प्रवेश देना शुरू कर दिया है, उसे वे बन्द कर देंगे। मेरे विचारसे हिन्दू और मुसलमान युवकोंके लिए इस मर्यादाको स्वीकार करना आवश्यक है।

मैं तो यह बिलकुल असम्भव मानता हूँ कि हिन्दू और मुसलमान परस्पर विवाह-सम्बन्ध करनेके बाद एक दूसरेके धर्मको अक्षुण्ण रख पायेंगे। और हिन्दू-मुस्लिम एकताकी सच्ची खूबसूरती इसी बातमें है कि दोनों मजहबोंके लोग अपने-अपने मजहबके प्रति ईमानदार रहते हुए एकदूसरेके प्रति भी ईमानदार रहें। कारण, हम चाहते हैं कि कट्टरसे-कट्टर हिन्दू और मुसलमान भी, वे आजतक जिस तरह एकदूसरेको अपना स्वाभाविक शत्रु मानते आये हैं, उसी तरह अब एक-दूसरेको अपना स्वाभाविक मित्र मानें।

तब हिन्दू-मुस्लिम एकता किस बातमें निहित है और उसको बढ़ानेका सबसे अच्छा तरीका क्या है? उत्तर सीधा-सादा है। वह इस बातमें निहित है कि हमारा एक समान उद्देश्य हो, एक समान लक्ष्य हो, और समान सुख-दुःख हों। और इस समान लक्ष्यकी प्राप्तिके प्रयत्नमें सहयोग करना, एक-दूसरेका दुःख बँटाना और परस्पर सहिष्णुता बरतना, इस एकताको भावना बढ़ानेका सबसे अच्छा तरीका है। जहाँतक एक समान लक्ष्यकी बात है, वह हमारे सामने है, हम चाहते हैं कि हमारा यह महान् देश महानतर और स्वशासित हो जाये। हमारे दुःख भी बहुत हैं, जिन्हें हम एक दूसरेके साथ बँटा सकते हैं। और आज यह देखते हुए कि खिलाफतके प्रश्नपर मुसलमानोंकी भावना बहुत तीन है और उनका मामला न्यायसंगत भी है, हिन्दुओंके लिए मुसलमानोंकी मित्रता प्राप्त करनेका इससे अधिक अच्छा उपाय और क्या हो सकता है कि वे मुसलमानोंकी मांगका हृदयसे समर्थन करें। दोनों मजहबोंके लोग कितना ही खान-पान क्यों न रखें, लेकिन उनका प्रेम-बन्धन उतना मजबूत नहीं हो सकता जितना कि खिलाफतके सवालपर हिन्दुओंके इस तरहसे सहायता देनेपर होगा।

और पारस्परिक सहिष्णुता तो सदैव और सभी जातियोंके लिए एक आवश्यकता ही है। यदि मुसलमानोंकी ईश्वर-पूजाकी पद्धतिको, उनके तौर-तरीकों और रिवाजोंको हिन्दू सहन नहीं करेंगे या अगर हिन्दुओंकी मूर्ति-पूजा और गो-भक्तिके प्रति मुसलमान असहिष्णुता दिखायेंगे तो हम शान्तिसे नहीं रह सकते। सहिष्णुताके लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं जो-कुछ सहन करता हूँ उसे में पसन्द भी करूँ। मैं शराब पीना, मांस खाना और तम्बाकू पीना बहुत ही नापसन्द करता हूँ; किन्तु में हिन्दुओं, मुसलमानों और ईसाइयों