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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गया है कि यदि प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना भाग अदा न करे, अपने हितोंको न जाने तो वह अवश्य ही कुचला जाये। प्राचीनकालमें ऐसा होता था कि राजा क्या करता है, यह देखनेकी, उसका नाम लेने की भी हमें जरूरत न होती थी। कर दे दिये, समय पड़नेपर हिम्मत-भरा उत्तर दे दिया अथवा रिश्वत देकर समय निकाल दिया, इतना ही काफी होता था। अब ऐसा समय नहीं रहा कि यह सब करके कोई बच सके। इच्छा अथवा अनिच्छापूर्वक राज्य-प्रशासनसे आज हमारे सम्बन्ध कुछ इस तरह जुड़ गये हैं कि यदि हम उसमें गहरे उतरकर उसे निकटसे देखना तथा अपने हितोंको समझना न सीखें तो हम अवश्य ही कुचले जायें। इसीसे मैं धार्मिक वृत्तिवाला तथा जिसे राजनीतिमें कोई रस ही नहीं है ऐसा व्यक्ति होनेपर भी पिछले कुछेक महीनोंसे इसमें ही लीन हो गया हूँ। इसका कारण सिर्फ इतना ही है कि राजनैतिक विषयोंमें इस तरह भाग लिये बिना आज मैं अपने धर्मकी रक्षा कर सकता हूँ अथवा नहीं, इस बारेमें मुझे शंका है। और मैं आपसे यही बात सीधे-सादे शब्दोंमें कहना चाहता हूँ कि अब भविष्यमें मजदूर-वर्गका भी राजनीतिमें कम या ज्यादा भाग लिये बिना गुजारा नहीं होगा।

गुजरे जमाने में तो हमारा परिचय अपने खेतोंसे था, [उस समय] मिले न थीं, मिल-मालिक न और न मिलोंसे सम्बन्धित कानून थे; आज यह सब-कुछ हो गया है। इसलिए यह क्या है--इसे जान लेना चाहिए। धर्मके अथवा कुटुम्बके भी कायदे-कानून है, लेकिन हम उन्हें कानून नहीं कहते; कारण उनमें सजा अथवा जुरमानेकी बात नहीं होती। अब ऐसा समय आ गया है कि कोई एक ही व्यक्ति न तो हमारा भला कर सकता है, न नुकसान। हमें अपने कामकाजको खुद ही चलाना होगा। इसमें यह भी सम्भव है कि सरकारमें, विधान परिषदोंमें हमारी ओरसे जो प्रतिनिधि जायें वे हमारे नामपर हमारा ही गला काटें। इसलिए भी हमें इसके सम्बन्धमें जानकारी हासिल करनी होगी। अपने बच्चोंका लालन-पालन हम कैसे करें, उन्हें शिक्षा देने की सुविधा इतनी कम क्यों है, अनाजके भाव कैसे बढ़ते हैं, यह सब हमें जानना होगा। जो माताएँ यहाँ बैठी हैं उन्हें भी, बच्चोंका लालन-पालन कैसे किया जाये--यह सीखना होगा। पाठशालाएँ खुलेंगी और एक समय ऐसा भी आयेगा जब हमें अनिवार्य रूपसे बच्चोंको उन पाठशालाओंमें भेजना पड़ेगा। इसलिए यदि हम यह जाननेकी कोशिश नहीं करेंगे कि इन सब बातोंसे हमारा क्या हित या अहित होगा और आत्मनिर्भर नहीं बनेंगे तो हम मरे हुएके समान हैं। वणिकों और ब्राह्मणोंके संघ तो हमारे यहाँ पहलेसे ही हैं, क्षत्रियोंके भी हैं लेकिन कुछ भिन्न प्रकारके। अब ऐसा समय आ गया लगता है कि जब मजदूर भी ऐसे संघकी स्थापना करें जिसमें बुनकर, लुहार, कतवैये आदि इकट्ठे होकर अपना संगठन कर सकें, अपने गुण-अवगुण जानें और अवगुणोंको दूर करने के उपाय करें। मैं फिर आपको चेतावनी देता हूँ कि आप भले ही अपना संगठन खड़ा करें, संघ बनायें लेकिन जो नियम निर्धारित करें, जिन व्यक्तियोंको चुनें, जिन व्यक्तियों के हाथों अपने हितोंकी बागडोर दें--उन नियमोंका निर्धारण और उन व्यक्तियोंका चुनाव इस कार्यके उत्तरदायित्वको समझकर ही करें। इन व्यक्तियोंपर आप न केवल अपने पैसे तथा कारोबारके सम्बन्धमें