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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुझे उबार लिया। मेरे मनमें इसकी स्मृति सदैव बनी रहेगी। मालवीयजीके प्रेमका वर्णन तो किया ही नहीं जा सकता, उन्होंने मेरी पूरी तरहसे चौकीदारी की। हमारे सम्बन्ध ऐसे हैं कि हम एक पल भी सेवाधर्मकी बात किये बिना नहीं रह सकते थे, किन्तु हमने बातचीत न करनेके संयमका पालन किया। आनन्दशंकरजीके साथ खूब सारी बातें करने, उनसे काशीजीके अनुभव सुनने का मन तो होता था, लेकिन उसे रोकना पड़ता था। इस तरह पवित्र तथा प्रेममय वातावरणमें रिपोर्टका काम पूरा हुआ। रिपोर्ट मार्चके आरम्भ में प्रकाशित होगी, ऐसी आशा की जा सकती है।

अरुणोदय

हमारे रहने का प्रबन्ध पंडितजीके साथ ही गंगा-तटपर किया गया था। अरुणोदय और सूर्योदयका दृश्य सब स्थानोंपर भव्य होता है, लेकिन गंगाजीके तटपर तो यह दृश्य मुझे नितान्त अद्भुत जान पड़ा। आकाशमें जैसे-जैसे प्रकाश बढ़ता जाता वैसे-वैसे गंगाके पानीपर स्वर्णिम प्रकाश बिखरता जाता है और अन्तमें जब सूर्य पूर्णतः दृष्टिगोचर होता, उस समय ऐसा प्रतीत होता मानो पानीमें एक बृहदाकार स्वर्ण-स्तम्भ प्रतिष्ठापित कर दिया गया है। इस दृश्यको कितना भी देखें, आँखोंको तृप्ति ही नहीं होती थी। भक्तजनोंके कंठसे गायत्री मन्त्र अपने-आप स्फुरित हो उठता था। इस भव्य दृश्यको देखने के बाद सूर्यकी उपासना, नदियोंकी महिमा और गायत्री मन्त्रके अर्थको मैं अधिक अच्छी तरह समझ सका।

इसी स्थानपर घूमते हुए मैंने अपने देश और अपने पूर्व-पुरखोंके बारेमें गर्वका अनुभव किया, लेकिन इसके साथ ही मुझे वर्तमान स्थितिका विचार करते हुए दुःख भी हुआ। मैंने नदीके किनारे ही लोगोंको शौचादि करते हुए देखा। 'जंगल' जाना छोड़कर अब हम नदीपर जाते हैं। इस पवित्र स्थलपर तो एसी स्थिति होनी चाहिए कि हम आँख मूँदकर नंगे पाँव चल-फिर सकें। लेकिन इसके बदले हमें बहुत सँभलकर चलना पड़ता है और ऐसी जगहसे गंगाजल पीते हुए भी घिन आती है। इस गन्दगीके बारे में सोच ही रहा था कि मुझे काशीके विश्वनाथ मन्दिरकी याद आ गई। मन्दिरके पासकी सँकरी गली, वहाँकी गन्दगी, वहाँ देखे हुए सड़े फूलोंका ढेर, वहाँके पुजारी ब्राह्मणोंकी कठोरता और मलिनता -- इन सबके विचार मात्रसे मैंने एक लम्बी साँस ली तथा मुझे भारतीयोंकी अवनतिके कारणकी याद आई, और तब मुझे पंडितजी तथा उनके कार्योका खयाल आया। काशी विश्वविद्यालयकी सफलतासे ही भविष्यमें [हम] उनकी कीमत आंकेंगे। इस परीक्षामें क्या वे उत्तीर्ण होंगे? उनके धर्माचरणका, उनके त्यागका, भारतवर्षकी उन्होंने जो भव्य सेवा की है उसका, मुझे खयाल आया। ध्रुवजी उनके दायें हाथ हैं और इस तरह विश्वविद्यालयका कार्य-भार दो बड़े धर्मात्मा पुरुषोंके हाथमें है, इस विचारसे मुझे सान्त्वना मिली। मुझे ऐसा लगा कि यदि विश्वविद्यालयके विद्यार्थी धार्मिक और विद्वान् निकलें तो मन्दिर और गंगा-तटकी सफाईकी अपेक्षा की जा सकती है। विश्वविद्यालयमें वह शक्ति हो या न हो लेकिन प्रत्येक भारतीयका यह कर्त्तव्य है कि वह हिन्दू धर्ममें छाई हुई आन्तरिक और बाह्य मलिनताको दूर करनेके उपाय खोजे। प्रत्येक भारतीय घर बैठे-बैठे आजसे ही