पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/१३

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भूमिका

इस खण्डकी व्याप्ति १९ नवम्बर, १९२० से १३ अप्रैल, १९२१ तक की है। यह अवधि एक बड़ी व्यस्त अवधि है जिसमें गांधीजीने असहयोग आन्दोलनको एक नई दिशामें आगे बढ़ाया। इसके पहलेके छः महीनोंमें गांधीजीने शासनकी तत्कालीन प्रणालीके विरोधमें जनताको जागृत किया और वह जागी। अब उनके सामने यह सवाल था कि इस राष्ट्रीय जागृतिको वे किसी रचनात्मक काममें लगा दें। दिसम्बरके अन्तिम सप्ताहमें कांग्रेसका नागपुर अधिवेशन हुआ और वहाँ गांधीजीके नेतृत्वमें राष्ट्रीय संघर्षका एक नया उद्देश्य अंगीकार किया गया। कहा गया: “इस राष्ट्रीय सभाका उद्देश्य स्वराज्य प्राप्त करना है और उसे प्राप्त करनेका उपाय यही है कि हमारे साधन न्याययुक्त, शुद्ध और शान्तिपूर्ण हों।” (पृष्ठ १६२, १६८) इन शब्दोंसे नागपुर अधिवेशन में अहिंसा और विकासशील असहयोगसे सम्बन्धित उस प्रस्तावमें पुन: अपना विश्वास प्रकट किया जो उसने सितम्बर १९२० में कलकत्ताके विशेष अधिवेशनके समय पास किया था। इस प्रस्तावमें जनतासे इस बातकी अपील भी की गई कि वह अपने संघर्षको तीव्र करे। साथ ही कांग्रेसने ग्रामीण अर्थव्यवस्थापर आधारित अपना एक संविधान भी बनाया, ताकि कांग्रेसको एक जबरदस्त संस्थाका रूप देकर उसे कारगर कदम उठानेका साधन बनाया जा सके। इसके बाद पुन: बेजवाड़ाकी बैठकमें ३१ मार्च, १९१९ को अखिल भारतीय कांग्रेस समितिने एक निश्चित कार्यक्रम जनताके सामने रखा और उसके पूरे होनेकी अवधि ३० जून, १९२१ तय की गई।

कांग्रेसके वार्षिक अधिवेशनके कतिपय दिनोंको छोड़कर छः महीनोंकी इस अवधिमें, गांधीजी देशका दौरा करते रहे और उन्होंने पंजाब, संयुक्त प्रान्त, बंगाल, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और दक्षिणमें जगह-जगह हजारों लोगोंको सभाओंमें कांग्रेसके कार्यक्रमसे परिचित कराया। उन्होंने वैसे तो देशकी समस्त जनतासे आन्दोलनमें शामिल होनेके लिए कहा, किन्तु विशेष रूपसे उनका सन्देश देशके तरुणोंके नाम ही था। असहयोग आन्दोलनका एक प्रमुख कार्यक्रम था सरकारी स्कूलों और कालेजोंका बहिष्कार। गांधीजीने विद्यार्थियोंसे इन्हें बिलकुल खाली कर देनेके लिए कहा और यह भी कहा कि उन्हें अपने जीवनपर जीविकाकी दृष्टिसे विचार करनेकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रचलित शिक्षा- पद्धतिको वे अस्वीकार्य मानें, इसलिए नहीं कि वह खराब है――खराब तो वह निश्चय ही है, किन्तु वह मलिन भी है, यहाँतक कि ‘पापयुक्त’ है। वह एक पापमय शासन पद्धति द्वारा देशपर थोपी गयी है और इसलिए वह शिक्षा पद्धति स्वयं भी पापमय है। गांधीजीकी अपीलपर तमाम विद्यार्थियोंने स्कूल और कालेज छोड़ दिये और जहाँ-तहाँ राष्ट्रीय शालाएँ और महाविद्यालय खुलने लगे। इनमें चरित्र संगठन और रचनात्मक सेवापर जोर दिया जाता था। ऐसी संस्थाओंके विद्यार्थियोंके सामने दिये गये जो भाषण इस खण्डमें शामिल किये गये हैं,