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नैतिक मूल्य
नैतिक बुद्धिका दर्जा शरीरसे ऊपर है और अगर कोई अन्यथा आचरण करता है तो उसका मतलब सर्वशक्तिमान प्रभुको सत्ताको चुनौती देना होगा। मानव-जातिमें इस प्रकार आत्म-त्यागकी भावना आ जानेपर प्रत्येक मानव सहज ही दूसरे मानवको प्यार करने लगेगा और यह सच्चा स्वराज्य इस समस्त मानव-जातिको एक सूत्रमें बाँध देगा।
लेकिन दूसरी ओर क्या यह सम्भव भी नहीं है कि अगर आप प्रारम्भ असहयोगसे करते हैं तो आपका यह नैतिक लक्ष्य गौण हो जायेगा और निम्नतर भौतिक आकांक्षाओंकी पूर्ति ही मुख्य हो जायेगी? उस हालतमें अगर आप सफल भी हो जाते हैं तो क्या यह सम्भावना दिखाई नहीं देती कि आप अनजाने हो अपने प्रयत्नोंका सार-तत्व ही खो बैठेंगे और अपने सहयोगियोंको, आज वे जिस हवतक पशु हैं, उससे भी अधिक पशु बना देंगे? जो राष्ट्र अभी स्वयं स्वार्थको जीतना सीख नहीं पाया है लेकिन एक आत्मत्यागी नेताका अनुसरण करनेका प्रयत्न कर रहा है, उस राष्ट्रके असहयोगकी अपेक्षा आत्मत्यागी राष्ट्रके आत्मत्यागी प्रतिनिधियोंके सहयोगसे स्वार्थ-रहित सरकारको जल्दी स्थापना हो सकना कहीं अधिक सरल है।
आप इन तथ्योंपर थोड़ा विचार कीजिए। आप जो कुछ भी करें उसे तो समस्त मानव समाजके हितमें होना चाहिए; और नैतिक मूल्योंको गौण स्थान तो किसी भी हालत में नहीं दिया जाना चाहिए――गौण जान पड़नेवाले मामलोंमें भी नहीं, अन्यथा उपचार रोगसे भी अधिक बुरा सिद्ध हो सकता है।

प्रारम्भका एक वाक्य छोड़कर, मैंने यह पत्र पूराका-पूरा दे दिया है। नाम नहीं प्रकाशित किया है, क्योंकि मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं कि पत्र-लेखक अपना नाम प्रकाशित कराना पसन्द करेंगे या नहीं। उनकी नैतिक उलझन सावधानीसे विचार करने योग्य है। मेरी समझमें विचारोंमें उलझनके कारण बात इस तरह कही गई है। मैं बराबर यह दिखानेका प्रयत्न करता रहा हूँ कि असत् साधनसे कभी कोई सदुद्देश्य पूरा हो ही नहीं सकता। लेखक जिस बातपर शंका कर सकता है और कर भी रहा है वह है आम असहयोगियोंका मंशा। मैं स्वीकार करता हूँ कि सभी असहयोगी प्रेमकी भावनासे प्रेरित नहीं हैं। वे एक निरर्थक घृणाभावसे प्रेरित हैं। निरर्थक इसलिए कि असहयोगको योजना में इतने सारे असहयोगियोंकी घृणा [भी] कोई अर्थ नहीं रखती। कोई व्यक्ति घृणासे प्ररित होनेपर अपना बलिदान नहीं करता, बल्कि असहाय होकर जिसे अपना शत्रु मानता है उसे चोट पहुँचाने की कोशिश करता है। असहयोगमें जिस परिणामकी कामना की जा रही है वह अन्यायीको दण्ड देना नहीं, बल्कि उससे न्याय प्राप्त करता है। घृणाका उद्देश्य कभी न्याय प्राप्त करना नहीं होता; उसका उद्देश्य तो सिर्फ प्रतिशोध होता है। घृणा मनुष्यको क्रोधान्ध बनाती है। अमृतसरमें भीड़की घृगाका परिणाम यह हुआ कि निर्दोष लोगोंको प्राण गँवाने पडे।[१]लेकिन असहयोगीकी

  1. देखिए खण्ड १७, पृष्ठ १८३-८७।