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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कोई भी ग्रामशाला चलानेका खर्च उस गाँवकी सामर्थ्यसे अधिक नहीं होना चाहिए। ये शालाएँ हमारे बच्चोंमें साहस और विश्वास भरनेवाली संस्थाएँ होंगी। कताई और बुनाईसे हर गाँवको आत्मनिर्भर बना देना चाहिए। स्वराज्यकी स्थापनाके पहले ही भारतके जीवनको राष्ट्रीय आधारपर शान्तिपूर्ण ढंगसे संगठित कर देना जरूरी है। अगर सच्चे मनसे प्रयास किया जाये तो दुनियाकी कोई भी ताकत इस राष्ट्रको अपने लक्ष्यकी ओर बढ़ने से रोक नहीं सकती। कालेजका हर ईमानदार और बहादुर छात्र यह महान् कार्य अपने हाथोंमें ले सकता है। इसके लिए पहलेसे किसी शिक्षाकी जरूरत नहीं है। जरूरत सिर्फ उन दो गुणोंकी है, जिनका उल्लेख मैंने किया है।

और भी आलोचक और भी आलोचनाएँ

सारी बातोंको प्रकाशित या उनका उल्लेख न कर पानेके लिए, आशा है पत्र-लेखक मुझे क्षमा करेंगे। मेरे लिए वह सम्भव नहीं है। मेरे सामने ध्यान देने लायक दो प्रचार-पुस्तिकाएँ पड़ी हुई हैं, एक कलकत्ताके श्री चटर्जीकी लिखी हुई है और उसकी भूमिका श्री शास्त्रियरने[१] बहुत ही प्रभावशाली शैली में लिखी है। मैं यह पुस्तिका अभी पढ़ नहीं पाया हूँ। दूसरी नागपुरके प्रो० राजूने लिखी है। प्रो० राजूकी पुस्तिकाको भी मैं अभी सरसरी नजरसे ही देख पाया हूँ। उसमें उन्होंने असहयोगके पक्षकी धज्जियाँ उड़ानेकी कोशिश की है। यह पुस्तिका इसलिए पढ़नी पड़ी कि मैं नागपुर में प्रिंसिपल वैशायरके साथ उनसे भी मिलनेकी उम्मीद कर रहा था। लेकिन प्रशासनने मंजूरी नहीं दो, सो उनसे मिल नहीं पाया। प्रो० राजूकी पुस्तिकापर विस्तारसे लिख सकनेके लिए मेरे पास समय नहीं है। मुझे दुःखके साथ कहना पड़ता है कि उन्होंने इस आन्दोलनका अध्ययन सतही तौरपर ही किया है और उतने ही सतही तौरपर मेरे साधनपर भी विचार किया है। ऐसा लगता है कि वे मेरे कुछ मूलभूत विचारोंसे भी परिचित नहीं हैं। उन्होंने मुझपर बहुत से ऐसे विचार आरोपित किये हैं, जो कभी मेरे मन में रहे ही नहीं। उन्होंने पाठकोंके सामने मेरे विचारोंका विकृत चित्र ही पेस किया है। जिसने कभी इस आन्दोलन या मेरे विचारों का अध्ययन न किया हो इस पुस्तिकासे वही भ्रमित हो सकता है। उनके निष्कर्ष स्पष्टतः बेतुके हैं; मैं यहाँ उनमें से सिर्फ एकको ही पेश करके सन्तोष करता हूँ। वे कहते हैं:

श्री गांधीका दावा है कि वर्तमान असहयोग आन्दोलन अहिंसात्मक है लेकिन हम इसी निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि अहिंसात्मक होना तो दूर, निश्चित रूपसे इसका मंशा और उद्देश्य हिंसा करना ही है।

‘यंग इंडिया’ के पाठकोंको इस आन्दोलनके अहिंसात्मक स्वरूपके बारेमें आश्वस्त करानेकी कोई जरूरत नहीं। श्री राजू गलत तथ्योंके आधारपर ऊटपटांग सम्भावनाओंकी कल्पना करके इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं। उनकी पुस्तिकापर विस्तारपूर्वक विचार न करने के लिए मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ। मैं श्री राजूसे और जिन लोगोंपर

  1. वी० एस० श्रीनिवास शास्त्री (१८६९-१९४६); विद्वान, राजनीतिज्ञ और १९१५ से १९२७ तक भारत सेवक समाज (सवेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी) के अध्यक्ष।