पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 19.pdf/५५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५२९
टिप्पणियाँ


स्वीकार कर लेनेसे बचाता है। मैं नम्र भावसे जैसे-जैसे विचार करता हूँ वैसे-वैसे मुझे लगता है कि साम्राज्यने जैसी डायरशाही चलाई है वैसी ही डायरशाही हिन्दूधर्मके नामपर हिन्दुओंने भंगी आदि जातियोंपर चलाई है। साम्राज्यकी डायरशाहीको मैं शैतानियत कहता हूँ । अस्पृश्यताको भी मैं उतनी ही भयंकर शैतानियत मानता हूँ । मैं हिन्दू धर्मको उस दोषसे मुक्त करनेके लिए जी-जानसे प्रयत्न कर रहा हूँ और ईश्वरसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि वह मुझे उसके लिए और अधिक कठिन तपश्चर्या के योग्य बनाये |

[ गुजराती से ]

नवजीवन, ५-४-१९२१

२६८. टिप्पणियाँ

सफेदमें काला

स्वदेशी आन्दोलनका लाभ उठाकर कितने ही लोग कैसी बेईमानी कर रहे हैं। इसका उदाहरण देकर एक मित्र लिखते हैं:

मैं तो देश में पहले ईमानदारी और बादमें स्वदेशीके प्रचारकी इच्छा करता हूँ |

यह विचार निर्मल है लेकिन उसमें एकान्तवाद है। जैन-दर्शनसे मैंने अनेक जानने योग्य बातें सीखी हैं। उनमें से एक अनेकान्तवाद है। "एकान्त " दृष्टिसे देखी हुई एक भी बात सही नहीं होती। प्रत्येक वस्तुके दो पक्ष होते हैं। "मैं तो पहले ईमान- दारी चाहता हूँ" इसमें एकान्तवाद आ जाता है। यह बात हमेशा स्पृहणीय है। लेकिन जबतक लोगोंमें ईमानदारी नहीं आ जाती तबतक स्वदेशीके प्रचारको रोक दिया जाये — ऐसा सोचनेसे तो स्वदेशी और ईमानदारी दोनोंको ही खोनेका अवसर आ जायेगा । सत्य अथवा ऐसे ही अन्य गुणोंका विकास मनुष्यमें अपने-आप नहीं होता, कुछ-न-कुछ काम करनेके साथ-साथ ही होता है। हिन्दुस्तान लायक बनेगा तभी वह स्वराज्यका उपभोग कर सकेगा, ऐसा कहकर राज्यकर्त्तागण आजतक स्वराज्यको रोके रहे और हमने उन्हें ऐसा करने दिया। हिन्दुस्तान तो स्वराज्यके लिए कबका लायक है। हिन्दु- स्तानमें पूर्णता होती तो वह गुलाम न होता, लेकिन स्वराज्यकी योग्यता तो स्वराज्यका उपभोग करते हुए ही आती है। इसी तरह स्वदेशीका प्रचार करनेसे ही लोगोंमें ईमान- दारीकी भावना आयेगी । स्वदेशी ईमानदारीके बिना नहीं चल सकती, यह विचार शुद्ध है और अनेकान्तवादका विरोधी नहीं है। ऐसा माननेसे दोनों वस्तुएँ साथ-साथ चल सकती हैं। ईमानदारीके बिना एक भी वस्तु नहीं चल सकती, ऐसा दृढ़ विश्वास रखनेसे उस गुणका और भी विकास किया जा सकता है और साथ ही किसी भी अच्छी प्रवृत्तिको चलानेमें क्षोभ भी नहीं होगा। मेरी मान्यता तो ऐसी है कि यदि हमने मोहमें फँसकर स्वदेशीका त्याग न किया होता तो आज हम जिस हालतमें हैं,

१९-३४