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पत्र : 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' को

को कॉलोनीकी शिकायतें तथा ट्रान्सवाल और नेटाल कॉलोनी, दोनों के ९ बजे वाले नियम और पासवाला कानून और रेलवे-कानून व पटरी-उपनियमके विषयमें अभी तक कोई प्रार्थनापत्र नहीं दिया गया है। मेरी नम्र रायमें इन सब मामलोंकी ओर होम गवर्नमेंटका ध्यान आकर्षित किया जाना चाहिए।

'मद्रास स्टैण्डर्ड' के सम्पादककी मार्फत आपने जो पत्र मुझे भेजे, उनके लिए मैं आपका आभारी हूँ।

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

मूल अंग्रेजीसे; फीरोजशाह मेहता कागजात, सौजन्य; नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय

 

७. पत्र: 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' को

मद्रास
१७ अक्तूबर, १८९६

 

सम्पादक

'टाइम्स ऑफ इंडिया'

महोदय,

अगर आप इसे अपने प्रभावशाली पत्रमें प्रकाशित करने की कृपा करें, तो मैं आभारी हूँगा।

मैंने दक्षिण आफ्रिकाके ब्रिटिश भारतीयोंकी शिकायतोंपर जो पुस्तिका लिखी है उसके उत्तरमें, जान पड़ता है, नेटालके एजेंट-जनरलने रायटरके प्रतिनिधिसे कहा है कि यह कहना सच नहीं है कि रेलवे तथा ट्रामके कर्मचारी भारतीयोंके साथ पशुओं-जैसा व्यवहार करते हैं। भारतीय प्रवासी मुफ्त वापसी टिकटका लाम नहीं उठाते, यही मेरी उक्त पुस्तिकाका सबसे अच्छा जवाब है। और, भारतीयोंको अदालतोंमें न्यायसे वंचित नहीं किया जाता। पहले तो, पुस्तिकामें सारे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंकी शिकायतोंका वर्णन किया गया है। दूसरे, मैं इस बयानपर दृढ़ हूँ कि नेटालमें रेलवे और ट्रामके कर्मचारी भारतीयोंके साथ पशुओं-जैसा व्यवहार करते। हैं। इसमें अगर कोई अपवाद हों तो उनसे नियमका सबूत ही मिलता है। मैंने खुद ऐसे अनेक मामले देखे हैं। अगर यूरोपीय यात्रियोंकी सुविधाके लिए एक रातमें तीन बार एक डिब्बेसे दूसरे में और दूसरेसे तीसरेमें हटाया जाना पशुवत् व्यवहार नहीं है तो क्या है? जो लोग देखने में ही शिष्ट अँचते है उन्हें स्टेशन मास्टर ठोकरें मारते हैं, धक्के देते हैं और कसमें खा-खाकर धमकियाँ देते हैं। रेलवे स्टेशनों

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