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आठ

जबरदस्त चिनगारीका काम किया और आग भड़क उठी ।" (पृष्ठ ४५८) । इसके बाद महीनों तक गांधीजी जनताको समझाते रहे कि देशमें पूरी तरह अहिंसाका वातावरण बनाये रखना चाहिए और रचनात्मक कार्यक्रम अर्थात् स्वदेशी, हिन्दू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता निवारणपर अमल किया जाना चाहिए । 'नवजीवन' में प्रकाशित अपने लेखों और जगह-जगह दिये गये अपने भाषणोंमें उन्होंने सहिष्णुता और संयमकी आवश्यकतापर जोर दिया । उन्होंने कहा, सरकार कितनी ही भड़कानेवाली कार्यवाही क्यों न करे, हमें उसके प्रति संयम बरतना चाहिए और अपने राजनीतिक विरोधियोंके प्रति सहिष्णुता । वे जनताके हिंसक होनेकी बात तो बिलकुल नहीं मानते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास था कि अपनी दीर्घकालीन परम्परा और सभ्यताके कारण जनतामें तो अहिंसाकी भावना भली-भाँति भिद चुकी है (पृष्ठ २७७-७८) । किन्तु असहयोगी कार्यकर्त्ताओं में उन्होंने दोषका दर्शन किया । "यह साफ दिखाई पड़ गया है कि कार्यकर्त्तागण कोई भी गम्भीर रचनात्मक कार्य करनेको तैयार नहीं हैं । रचनात्मक कार्य उनको चित्ताकर्षक नहीं लगा ।... वे तो 'अहिंसामय' घूँसा जमानेके पक्ष में हैं।" (पृष्ठ ५२६)

सविनय अवज्ञा आन्दोलनको अनिश्चित कालके लिए बन्द कर देनेसे लोगोंको ऐसा लगा कि गांधीजीका राजनीतिक नेतृत्व एकदम असफल हो गया है । आलोचकोंने इसे उनकी 'कलाबाजियाँ' (पृष्ठ ५१९) घोषित किया । किन्तु यह कोई पहला ही अवसर नहीं जब गांधीजीकी निष्ठाकी कसौटी हुई हो और वे प्रत्यक्ष असफलताकी आगमें पड़कर और भी निखरकर न निकलें हों । अपनी सभी सार्वजनिक गतिविधियों में वे सदा ईश्वरको ही अपना पूरा आधार मानते थे । इसीसे उन्हें शक्ति मिलती थी । इस खण्डका पहला ही शीर्षक उनकी इस निष्ठाको अभिव्यक्त करता है : "यदि हम केवल परमात्माको ही अपना सहारा मानें और अपनेको उसकी शरण में छोड़ दें तो हम सरकारकी तमाम अग्नि परीक्षाओंमें से बेदाग बाहर निकल आयेंगे ।... हमपर जरा भी आँच न आने पायेगी ।... जालिमके सामने अडिग खड़े रहनेकी रीति यह नहीं है कि हम उससे घृणा करें या उसपर हाथ उठायें, बल्कि यह है कि हम अपने उस दुःख और क्लेशके समय ईश्वरके दरबारमें नम्र होकर सच्चे दिलसे पुकार करें ( पृष्ठ ४ - ५ ) । गांधीजीने इसी भावसे काम किया और उत्पन्न परिस्थितिसे बाहर निकले । उन्हें जो व्यक्तिगत अपमान सहना पड़ा, वह बेशक जबरदस्त था । "किन्तु शैतानकी आवाज गूँजी, 'वाइसरायको भेजे गये आपके घोषणापत्र तथा उनके उत्तरमें लिखे गये आपके प्रत्युत्तरका क्या होगा ? अपमानका यह घूँट सबसे अधिक कड़वा था ।" (पृष्ठ ४३९) । किन्तु अबतकका पशोपेश दूर हो चुका था और गांधीजीको अपना रास्ता बिलकुल साफ दिखाई पड़ रहा था : "हमारे अपमान और कथित पराजयपर प्रतिपक्षियोंको खुश होने दीजिए ।... अपने प्रति झूठा सिद्ध होनेकी अपेक्षा संसारकी आँखोंके सामने झूठा सिद्ध होना लाख गुना अच्छा है ।...मुझे वैयक्तिक रूपसे प्रायश्चित्त करना होगा । मुझे एक ऐसा संवेदनशील उपकरण बनना है जो आसपासके नैतिक वातावरणमें होनेवाले सूक्ष्मतम परिवर्तनको स्पष्ट रूपसे अनु-