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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

अवज्ञा करता है उस ओर जनताका ध्यान आकर्षित करता है और इस तरह उस राज्यके विनाशका कारण बनता है। इसलिए उस राज्यमें जहाँ कोई कानून नहीं है या दूसरे शब्दों में जो राज्य भ्रष्ट है वहाँ सविनय अवज्ञा एक पवित्र कर्त्तव्य बन जाती है और जो नागरिक इस प्रकारके राज्यसे लेन-देनका व्यवहार रखता है वह उस राज्यके भ्रष्टाचार और गैर-कानूनी हरकतोंमें साझीदार है।

इसलिए किसी विशेष अधिनियम या कानूनकी सविनय अवज्ञा करना उचित होगा या नहीं, यह सवाल जरूर उठाया जा सकता है और रुकने तथा सावधानी बरतने की सलाह भी दी जा सकती है। लेकिन सविनय अवज्ञा करनेके अधिकारके बारेमें शंकाको कोई स्थान नहीं हो सकता। वह तो हर एकका जन्मसिद्ध अधिकार है; उसे अपना आत्मसम्मान खोये बिना नहीं छोड़ा जा सकता।

हाँ, यह जरूरी है कि जब सविनय अवज्ञाके अधिकारपर जोर दिया जाये तो उसके साथ ही सभी सम्भव प्रतिबन्ध लगाकर इस बातकी व्यवस्था कर दी जानी चाहिए कि उसका समुचित उपयोग हो। इस बातकी पूरी सावधानी रखी जानी चाहिए कि कहीं भी हिंसा न भड़क उठे और अराजकता न फैल जाये। प्रसंगकी आवश्यकताके अनुसार उसकी व्याप्ति और प्रसारका क्षेत्र अच्छी तरह सीमित कर दिया जाना चाहिए। इसलिए आज जो सवाल हमारे सामने है उसे ध्यानमें रखते हुए हमें यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि आक्रामक सविनय अवज्ञाकी हमारी मौजूदा प्रवृत्ति भाषण और गोष्ठीकी स्वतन्त्रताके अधिकार सिद्ध करनेतक ही सीमित है। दूसरे शब्दोंमें असहयोग जबतक अहिंसात्मक रहता है तबतक उसे बिना किसी रुकावटके चलने देना चाहिए। जब ऐसी स्थिति आ जाये तभी खिलाफत, पंजाब या स्वराज्यकी समस्याओं पर समझौते के लिए प्रतिनिधियोंका सम्मेलन बुलाया जा सकता है, उससे पहले नहीं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, ५-१-१९२२