पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 22.pdf/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६१
टिप्पणियाँ

पहनने के कपड़ोंपर ही लागू हो सकती है। यदि हमारे घरोंमें गादी-गदेले आदि विदेशी या मिलके कपड़े के हों तो हमें उन्हें भी त्याग देना चाहिए; परन्तु यह बन्धन इस प्रतिज्ञामें नहीं आता, क्योंकि इस हदतक तत्काल शुद्धि करने में कठिनाइयाँ हैं। कितने ही मनुष्यों को यह खर्च भी असह्य हो सकता है। परन्तु पहनने के कपड़ोंमें इतने परिवर्तन के बाद घरमें दूसरे कामोंके लिए भी कोई खादीको छोड़कर मिल या किसी दूसरे देशका बना कपड़ा इस्तेमाल न करेगा। पहनने के कपड़ोंके लिए खादीका व्यवहार करने में तो अब जरा भी कठिनाई नहीं रह गई है। यदि कोई बहुत ही गरीब हो तो वह खादीकी लँगोटी लगाकर काम चला सकता है; परन्तु पहने खादी ही।

इस विषय में एक और सवाल किया गया है। खादी सिर्फ स्वयंसेवकका काम करते समय ही पहनें या हर वक्त? जबतक स्वयंसेवक दलमें किसीका नाम है तबतक तो प्रतिज्ञा करनेवाले को घर-बाहर सर्वत्र खादी ही पहननी चाहिए।

वीर माता

कांग्रेस सप्ताह में मुझे बम्बई के श्री गोविन्दजी वसनजी मिठाईवालाकी माताका पत्र मिला था। परन्तु मैं उसका उपयोग 'नवजीवन'में तभी नहीं कर सका। इस मुकदमेका विवरण बम्बईके कई अखबारोंमें छप चुका है, अतः मैं उसपर यहाँ विचार करना नहीं चाहता। श्री गोविन्दजीकी माताजीने अदालतमें एक बयान दिया था जिसका उत्तर एक सज्जनने दिया है। मैं इसके सम्बन्धमें भी कुछ कहना नहीं चाहता। इस मुकदमेमें श्री गोविन्दजीकी माता श्रीमती साकरबाईने जो वीरता दिखाई है मैं उसीकी ओर पाठकोंका ध्यान खींचना चाहता हूँ। साकरबाई हिम्मत करके पुलिस के पास गईं। वे अदालतमें भी कठघरेके सामने अपने बेटे के पास खड़ी रहीं और उन्होंने अपने बेटे के मनमें किसी तरहकी कमजोरी नहीं आने दी। श्री गोविन्दजीका लालन-पालन बहुत ऐशो-आराममें हुआ है। बम्बईके दंगे के समय उन्हें जो घाव लगा था वह अभीतक भरा नहीं था। उन्होंने जेलके कष्ट कभी भोगे नहीं थे। मित्र उनको जमानतपर छुड़वानेका प्रयत्न कर सकते थे। वे उन्हें यह कहकर सफाई देनेकी प्रेरणा दे सकते थे कि यह तो व्यक्तिगत मुकदमा है, राजनैतिक नहीं। उन्हें इन सब भयोंसे बचाने के लिए तथा सत्यकी रक्षा करनेके लिए साकरबाई अपने बेटेके कठघरेके सामने खड़ी रहीं और उन्होंने स्वयं उपस्थित रहकर मानो उनकी रक्षा की। उन्होंने श्री गोविन्दजीको जमानतपर छुड़ानेसे खुद इनकार किया। ये बहन जानती थीं कि असहयोगकी प्रतिज्ञा करनेवाला मनुष्य अदालतमें अपनी सफाई दे ही नहीं सकता; फिर उसका मुकदमा चाहे व्यक्तिगत हो चाहे सार्वजनिक, सच्चा हो या झूठा। इस कारण उन्होंने इस प्रतिज्ञाकी रक्षा करनेके लिए अदालतमें जानेका साहस किया। ऐसी मिसालें दूसरी जगहों में भी देखने में आ रही हैं। माता पुत्रकी, बहन भाईकी और पत्नी पतिकी तरह-तरहसे मदद कर रही है, और उन्हें हिम्मत बँधा रही है। मैं ऐसी दृढ़ता और हिम्मतमें स्वराज्यकी झाँकी देख रहा हूँ। स्त्री और पुरुष सभी आज तो अपनी शिक्षासे नहीं, बल्कि अपने सत्य और अभयसे भारतके मस्तकको ऊँचा कर रहे हैं।

२२-११