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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कांग्रेसके ध्येयको लिखित रूप में स्वीकार किया है, मतदाता होनेका अधिकार रखता है। स्वराज्य-संविधानके लिए प्रतिनिधि चुनना इन्हीं मतदाताओंका काम होगा। इसको कार्य रूपमें परिणत करना होगा। ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा इसमें कुछ भी रद्दोबदल नहीं किया जायेगा और यह जैसेका तैसा कार्यान्वित किया जायेगा।

इसपर टीका-टिप्पणी करनेवाले लोग पूछते हैं कि “यदि कांग्रेसका कार्यक्रम ऐसा रूखा-सूखा और कठोर है, तो फिर परिषद्की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है?” मेरा मत यह है कि आवश्यकता है और सदा रहेगी।

अब इस बातपर विचार करें कि इन माँगोंकी पूर्ति किस रीतिसे की जाये। हो सकता है कि सरकारके पास इन दावोंके लिए कोई युक्तिसंगत उत्तर हो और सम्भव है वह सबके गले भी उतर जाये। कांग्रेसने अपनी न्यूनतम माँगें पेश कर दी हैं; लेकिन कमसे कम माँगें स्थिर करनेका अर्थ यही है कि उसे अपने ध्येयके न्यायमूलक होनेमें विश्वास है। इसका यह भी अर्थ है कि इसमें सौदा करनेकी गुंजाइश नहीं है। अतएव, इसमें किसीकी कमजोरी या असमर्थतासे फ़ायदा उठानेकी कोई बात नहीं है। सिर्फ युक्ति और तर्कका ही सहारा लेना होगा। यदि वाइसराय परिषद्का आयोजन करते हैं तो इसका मतलब यही है कि या तो वे इन दावोंके न्यायपूर्ण होने के कायल हैं, या कांग्रेसके लोगोंके तथा दूसरोंके सामने उनकी अन्यायमूलकता सिद्ध करनेकी आशा करते हैं। इन दावोंको रद या कम करनेका प्रस्ताव सामने लानेका अर्थ है उनका तत्सम्बन्धी न्याय्यतामें विश्वास होना। यह है मेरा उस परिषद्का अर्थ जिसे मैं ‘बराबरीवालोंकी परिषद्’ कहता हूँ। उसमें बलप्रयोगका कहीं नामतक न हो और ज्यों ही एकको अपने पक्षमें अन्याय दीख पड़े त्यों ही वह उसको छोड़ दे। मैं वाइसराय महोदय तथा सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्तिको यकीन दिलाता हूँ कि कांग्रेसी अथवा असहयोगीगण उतने ही न्यायप्रिय हैं जितने दुनिया या इस देशके अन्य लोग हो सकते हैं। न्यायकी दिशामें प्रेरित करनेवाले तत्त्व उनमें व्याप्त हैं; क्योंकि आखिर मुनासिब प्रस्तावोंको नामंजूर कर देनेके फलस्वरूप जो मुसीबतें आयेंगी वे उन्हींको झेलनी पड़ेंगी।

मैंने लोगोंको विश्वासके साथ कहते हुए सुना है कि खिलाफत के बारेमें तो साम्राज्य सरकार लाचार है। मैं चाहता हूँ कि मुझे भी ऐसा विश्वास हो जाता। और फिर अगर साम्राज्य सरकार इस मामलेको अपना ही काम समझकर भारतके मुसलमानोंका साथ देने को तैयार हो जाये तो मुझे बड़ा सन्तोष हो। और मैं साम्राज्य सरकारकी हार्दिक सहायताका सहारा लेकर दूसरी शक्तियोंको भी खिलाफतके दावेकी न्यायपूर्णता जँचानेका प्रयत्न करूँगा। दावेकी न्यायपूर्णताके स्वीकृत हो जानेपर भी उसको कार्यान्वित करनेके विषयमें बहुत-कुछ विचार करना बाकी ही रहेगा।

उसी प्रकार पंजाबके विषयमें सिद्धान्तको मान लेनेपर भी तफसील सम्बन्धी बातें तय करनी बच रही हैं। बरखास्त किये गये मुलाजिमोंकी पेंशनें बन्द करनेके विषयमें भी तो अनेक कानूनी कठिनाइयाँ पेश की गई हैं। पाठक शायद यह न जानते होंगे कि मौलाना शौकत अलीकी पेंशन (मेरा खयाल है कि उनका रुतबा भी वैसा ही था जैसा कि सर माइकेल ओ‘डायरका) तो वगैर किसी प्रकारकी जाँचके या