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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि वह गोली न चलाता तो उसका सिनेमाघर बरबाद हो जाता। भीड़का प्रचण्ड रोष उचित दण्डपर उद्धत क्रोधका प्रदर्शन था। सर त्यागराज चेट्टियरके घरको घेर लेना वैयक्तिक स्वतन्त्रतामें एक कायरतापूर्ण हस्तक्षेप था। भीड़ने सर त्यागराजको युवराजका सम्मान करनेसे रोककर अपनेको अपमानित किया है और सर त्यागराज चेट्टियर जो सम्मान नहीं कर सके उससे महत्त्वको और बढ़ा दिया है। यह भीड़का तरीका हो सकता है, पर यह असहयोगियों के ‘काम करनेका’ तरीका नहीं है।

डा० राजन और उनके साथियोंने हड़तालको शान्तिपूर्ण रखने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनका हम आदर करते हैं। परन्तु मद्राससे हमें एक शिक्षा मिलती है, जैसी कि बम्बईसे मिली है। हमें अभी बहुत काम करना है, तभी हम स्वराज्यका सच्चा वातावरण पैदा कर सकेंगे। या तो हम एक सफल शान्तिपूर्ण क्रान्तिमें विश्वास रखते हैं, या फिर इस चीजमें विश्वास रखते हैं कि अहिंसा केवल हिंसाकी तैयारी मात्र है। यदि यह दूसरी बात ही सच है तो हमें अपने सिद्धान्तमें संशोधन कर लेना चाहिए। परन्तु मैं इतना आशावादी हूँ और मेरा यह विश्वास है कि भारतने अहिंसाकी भावनाको बहुत ही विलक्षण रूपसे हृदयगंम कर लिया है। अमृतसर, लाहौर, अलीगढ़, इलाहाबाद, कलकत्ता, बारीसाल और अन्य असंख्य स्थानोंपर जिस आदर्श आत्म-संयमका परिचय दिया गया है, वह यह बताता है कि जहाँ केवल प्रतिज्ञाबद्ध असहयोगी ही काम करते हैं वहाँ हम यह भरोसा कर सकते हैं कि अहिंसाका पालन होगा, लेकिन जहाँ मद्रासकी तरह अनुशासनहीन भीड़ जमा हो जाती है वहाँ असहयोगियों का कोई नियन्त्रण नहीं रहता। हमें निराश न होकर कोई ऐसा इलाज ढूँढ़ना चाहिए जिससे मद्रास जैसी गुण्डागर्दीकी पुनरावृत्ति न हो। हरदोईमें श्री बेकरपर हुआ हमला भी उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण है। सौभाग्यसे वे बच गये हैं। गिने-चुने सिरफिरे लोगोंका पता लगाना या उन्हें सँभालना बहुत ही मुश्किल है। मुझे इसमें सन्देह नहीं कि यह काम किसी ऐसे अज्ञात व्यक्तिका है जिसका असहयोगसे कोई सम्बन्ध नहीं है। लेकिन हमें इस तरह के मामलोंसे भी निपटना है। अहिंसात्मक वातावरणमें इस तरहकी घटनाएँ प्रायः असम्भव हो जानी चाहिए। परन्तु यह मानना होगा कि ऐसा अपेक्षित वातावरण अभी बना नहीं है। वह तभी बनेगा जब हम हिंसाको अपने विचारोंमें से बिलकुल निकाल देंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १९-१-१९२२