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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लाख तो क्या पाँच लोगोंके समुदायको भी नहीं भुला सकते। हम तो लोग जितना दें उनसे उतना लेकर अधिकके लिए विनती करते हैं । फिर खोजा लोगोंका सम्प्र- दाय तो प्रसिद्ध सम्प्रदाय है । उनके पास धन है, बल है और उनमें से कुछ लोगोंका दृष्टिकोण अत्यन्त व्यापक है। उनमें उदारहृदय सज्जन मौजूद हैं। कभी-कभी इस जातिके सरल चित्त भाई और बहन मुझे मिल भी जाते हैं । मैं जानता हूँ कि उनमें से कुछ तो 'नवजीवन' को बहुत ध्यानसे पढ़ते हैं । यदि मुझसे हो सके तो मैं हर खोजा भाई और बहनको असहयोगकी ओर, और यदि वह इतना न कर सके तो स्वदेशीकी ओर, अवश्य ही आकर्षित करूँ ।

स्वदेशी धर्म इतना सम्पूर्ण, सादा और सब लोगोंके लिए पालनीय धर्म है कि किसी भी भारतीयको उसका त्याग नहीं करना चाहिए। एक आठ वर्षकी तेलुगू कन्याने मुझे लिखा है : "मेरी श्रद्धा है कि चरखेसे स्वराज्य मिल सकता है। इस कारण मैं नित्य चरखा चलाती हूँ और सूत कातती हूँ। मैं मानती हूँ कि इससे स्वराज्य मिल जायेगा ।"

मैंने इस कन्याको उत्तरमें लिखा है कि चरखेमें मेरी श्रद्धा पूर्ववत् ही है । मैं अवश्य ही यह मानता हूँ कि यदि भारत निरन्तर चरखा चलाने के धर्मको स्वीकार कर ले, विदेशी कपड़े पहनना त्याग दे, खादी पहने और सूत कातता हुआ नित्य ईश्वरसे सहायता मांगे तो हम इतनेसे ही स्वराज्य ले लेंगे ।

इसलिए जो लोग असहयोगके सभी अंगोंको नहीं समझ सकते अथवा यदि समझते हैं तो उनको आचरण में लाने में सक्षम नहीं हैं, वे स्वदेशी धर्मका पालन तो तुरन्त करें। मुझे बहुत-सी खोजा बहनोंने कहा है कि खोजोंमें रेशमी और बारीक कपड़े पहनने का रिवाज हो जानेके कारण गरीब बहनें खोजाखानेमें[१] नहीं जा सकतीं। कुछ लोग संकोचके कारण विदेशी कपड़ोंको नहीं छोड़ सकते और कुछको रेशमी और बारीक कपड़ोंका व्यसन इस हदतक लग गया है कि वे खादीको देखकर मुँह बिचकाते हैं । जो लोग अपने देशकी वस्तुओं का इतना तिरस्कार करते हैं वे इस देशमें जन्मे होनेपर भी विदेशी हो जाते हैं। इनमें भी जो स्वदेशी वस्त्रोंका -अपनी ही बहनोंके कते मोटे या पतले सूतसे बुने गये वस्त्रोंका -त्याग करते हैं वे तो देशद्रोही ही हो गये हैं, ऐसा माना जायेगा ।

यदि सभी हिन्दू और मुसलमान ऐसा आचरण करें तो देशकी कंगाली कैसे दूर हो ? तब तो गरीब स्त्रियोंके लिए पत्थर तोड़ने के सिवा दूसरा धन्धा ही क्या रहता है ? डाक्टर प्रफुल्लचन्द्र राय जैसे प्रसिद्ध रसायनशास्त्रीतक ने यह बात समझ ली है कि वे बंगाल में अकाल के संकटको अपनी रासायनिक खोजोंसे नहीं, बल्कि चरखेसे दूर कर सकेंगे। उन्होंने अभी हाल में ही खुलनामें एक चरखा तैयार कराया है जिसे वे खुलना चरखा कहते हैं । वे इसे अपने कारखानोंके द्वारा अकाल पीड़ितोंको देते हैं । अब वे अकाल पीड़ितोंको मुफ्त चावल नहीं बाँटते, बल्कि उनसे कहते हैं कि वे सूत कातें और चावल लें। वे इस प्रकार खुलनाके गरीब गाँवोंमें चरखेका प्रवेश करा रहे

  1. खोजा लोगोंका जातीय सभा गृह ।