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१४७. पत्र : कार्य समितिके सदस्यों को[१]

गोपनीय ( प्रकाशनके लिए नहीं )

बारडोली
८ फरवरी, १९२२

प्रिय मित्र,

यह तीसरा अवसर है जब सामूहिक सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करनेके ठीक पहले मुझे एक जबरदस्त झटका लगा है। पहला अवसर था अप्रैल १९१९ में,[२]दूसरा पिछले साल नवम्बरमें,[३]और तीसरी बार अब फिर गोरखपुर जिलेकी घटनाओंने मेरे मनको अत्यधिक अशान्त बना दिया है। बरेली और सहारनपुरमें जो कुछ भी हुआ है उससे मेरे मनकी अशान्ति बहुत ज्यादा बढ़ गई है । वहाँ स्वयंसेवकोंने टाउन हालों- पर कब्जा करनेकी कोशिश की थी। वैसे अपराधपूर्ण अवज्ञा और सविनय अवज्ञा दोनों एक ही उद्देश्यके लिए की जा रही हैं । लेकिन यदि देशके कुछ दूसरे भागोंमें ऐसी अपराधपूर्ण अवज्ञा चलती रही तो जाहिर है कि बारडोलीमें की जानेवाली सविनय अवज्ञाका देशपर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । सविनय अवज्ञाकी पूरी संकल्पना यही मानकर चलती है कि सविनय अवज्ञा अहिंसापूर्ण वातावरणमें ही चल सकती है और पूर्ण अहिंसात्मक आचरणके बलपर ही सफल हो सकती है। हो सकता है कि मानव- स्वभावको परखनेमें मेरी समझ बड़ी ही अधकचरी हो, पर मेरा तो यही विश्वास है कि भारत जैसे एक विशाल देशमें ऐसा वातावरण तैयार किया जा सकता है। लेकिन मेरी समझ के अधकचरेपनकी दलील, मेरी समझदारीके बारेमें ही तो एक दलील हो सकती है, उसे एक ऐसा आन्दोलन जारी रखनेकी दलील तो नहीं माना जा सकता जो उस हालत में नाकामयाब ही होगा । मैं व्यक्तिगत रूपसे ऐसे किसी भी आन्दोलनमें कभी हाथ नहीं बँटा सकता जो आधा हिंसक और आधा अहिंसक हो, फिर चाहे उसके बलपर स्वराज्य ही क्यों न मिलनेवाला हो। ऐसा इसलिए कि उस तरीकेसे मिला स्वराज्य, मैं स्वराज्यको जिस रूप में देखता हूँ, वैसा सच्चा स्वराज्य नहीं होगा । इसलिए बारडोलीमें ११ तारीखको इन प्रश्नोंपर विचार करने के लिए कार्य समितिकी एक बैठक बुलाई जा रही है कि क्या सामूहिक सविनय अवज्ञा आन्दोलनको फिलहाल स्थगित नहीं किया जाना चाहिए। और दूसरा प्रश्न यह कि आन्दोलनके स्थगनकी

 
  1. साधन-सूत्र में दी गई प्रस्तावनात्मक टिप्पणीके कुछ अंश इस प्रकार हैं : बारडोलीका सविनय अवज्ञा आन्दोलन... वाइसरायको दिये गये समयको अवधिको समाप्तिपर १२ फरवरी, १९२२ को शुरू किया जानेवाला था... परन्तु महात्माजीने ८ तारीखको एकाएक अपना सारा कार्यक्रम बदल दिया और इस तब्दीलीके बारेमें कार्य समितिके सदस्योंके पास एक निजी पत्र भेजा..." ।
  2. देखिए खण्ड १५
  3. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ४८५-८९ ।