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स्वराज्यकी शर्तों

फिर हमें कांग्रेसकी कल्पनाका स्वराज्य प्राप्त करनेका क्या अधिकार है ? फिर हम कांग्रेस के स्वयंसेवकोंमें कैसे भरती हो सकते हैं ? जो हिन्दू अस्पृश्यताको धर्म मानता है उसे असहयोगी बननेका कोई अधिकार ही नहीं है, यह बात उसे तुरन्त समझ लेनी चाहिए। जो अपने-आपको हिन्दू मानते हैं यदि वे सब सच्चे हृदयसे अस्पृश्यताका त्याग करने के लिए तैयार न हों तो मैं अकेला होनेपर भी यह कहूँगा कि हमें इस पापको दूर किये बिना स्वराज्य नहीं मिलेगा और यदि हम इस पापको दूर न करेंगे तो हिन्दू धर्मका ही नाश हो जायेगा। अस्पृश्यताको धर्म मानकर उससे चिपके रहकर हिन्दू धर्मको कायम रखना, गायकी रक्षा करना, अहिंसाका पालन करना, और समत्व भाव बनाये रखना मैं असम्भव समझता हूँ। जैसे धूपके बिना अन्न नहीं पक सकता वैसे ही अस्पृश्यता- रूपी अन्धकारका नाश हुए बिना स्वराज्य- रूपी अन्नकी फसल कभी नहीं पक सकती ।

निर्भय हुए बिना स्वराज्य नहीं मिलेगा। फिर भी अभी हिन्दू मुसलमानोंसे और मुसलमान हिन्दुओंसे डरते हैं । पारसियों और ईसाइयोंको इन दोनोंसे भय है । फिर हमें स्वराज्य कैसे मिल सकता है ? जिसने भयका भी त्याग नहीं किया है अर्थात् जो भारत के सभी लोगोंको अपने भाई-बहन के समान नहीं मानता उसे स्वराज्य-प्रेमी कैसे माना जा सकता है ? वह स्वयंसेवक दलमें कैसे भरती किया जा सकता है ?

इसलिए मैं गुजरातियोंसे तो अवश्य ही कहना चाहता हूँ कि यदि वे तुरन्त स्वराज्य प्राप्त करना चाहते हों तो उन्हें ऊपर बताये गये धर्मका पालन तो करना ही चाहिए। चाहे कोई वकील हो, चाहे उपाधिधारी और चाहे धारासभाका सदस्य हो, यदि वह ऊपर बताई गई शर्तोंका पालन करेगा तो स्वयंसेवक दलमें भरती हो सकता है। किन्तु चाहे उसने वकालत छोड़ दी हो, उपाधि छोड़ दी हो, सरकारी शाला छोड़ दी हो और धारासभा भी छोड़दी हो, फिर भी यदि वह ऊपर बताई गई शर्तोंमें से किसी एकका भी पालन नहीं करता तो वह स्वराज्यवादी नहीं है । वह स्वयंसेवक दलमें भरती नहीं हो सकता और वह जेल जानेके योग्य नहीं है। उसके जेल जाने या प्राण देनेसे भी स्वराज्य नहीं मिलेगा । उसके जेल जानेसे इस राज्यका नाश हो सकता है; किन्तु यदि वैसा हुआ तो उसके बदलेमें जो राज्य स्थापित होगा वह इससे भी बुरा होगा ।

किन्तु इस राज्यसे बुरे राज्यकी कल्पना मेरे मनमें नहीं आ सकती । इसलिए मैं यह मानता हूँ कि उक्त शर्तोंका पालन किये बिना जेल जानेसे स्वराज्य मिलेगा ही नहीं । जेल जाने और मारपीट सहन करनेसे एक प्रकारकी निर्भयता अवश्य आ जायेगी; किन्तु केवल निर्भयता आनेसे ही तो स्वराज्य नहीं मिल सकता । जैसे निर्भयता के साथ ज्ञान और विवेक होनेसे ही मुक्ति मिलती है, वैसे ही निर्भयता के साथ-साथ स्वराज्यकी शर्तोंका ज्ञान होने और पालन करनेसे ही स्वराज्य मिल सकता है । लछमनसिंह[१] और उनके साथियोंको मारनेवालोंमें भी वीरताका अभाव नहीं था किन्तु उन्हें कोई स्वराज्यवादी नहीं मानता । मृत्युका भय त्यागनेवाले ऐसे लोगोंको १

  1. देखिए खण्ड २१, पृष्ठ ४४३ ।