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टिप्पणीयाँ

और मनुष्यको अपना वास्तविक स्थान प्राप्त करनेकी प्रक्रियामें, समय-समयपर उसकी पाशविक वृत्ति भद्दे रूपमें प्रकट होना अवश्यम्भावी है । मैं पहले भी इन पृष्ठोंमें कह चुका हूँ कि बुद्धिगम्य परिस्थितिमें खून-खराबीके दृश्यको देखकर मेरा दिल नहीं दहलता; किन्तु जब मैं देखता हूँ कि कोई असहयोगी या उसका सहायक अपनी प्रतिज्ञा के खिलाफ खून-खराबी कर बैठा है तब मैं जीता हुआ भी अधमरा-जैसा हो जाता हूँ । मेरा तो खयाल है कि ऐसे मौकेपर प्रत्येक सच्चे असहयोगीकी ऐसी ही हालत होती होगी ।

अतः हम अब अपने मूल तर्कपर आयें । हमें अवश्य ही सत्याग्रहीकी हैसियत से अपनेको व्यापक नियमोल्लंघनसे बचाये रखना चाहिए । जबतक स्वयं जेलका शासन बिगड़ा हुआ या नीति-विरुद्ध न हो या जबतक वह हमें ऐसा न दिखाई दे तबतक हमें जेल के नियमोंका पालन अवश्य करना चाहिए । लेकिन आराम न मिलने, प्रतिबन्ध लगाये जाने तथा ऐसी ही दूसरी असुविधाओंसे जेलका शासन बिगड़ा हुआ नहीं कहा जा सकता । ऐसा तो वह तभी हो सकता है जब कैदी अपमानित किये जाते हों या उनसे बेरहमीका बरताव किया जाता हो -- जैसे उन्हें गन्दी कोठरियों में रखना या उनको मनुष्योंके लायक खाना न देना । मैं यह आशा जरूर करता हूँ कि जेल में असहयोगियोंका आचरण बिलकुल ठीक, गौरवपूर्ण और फिर भी नम्रतायुक्त रहेगा । हमें जेलरों और वार्डरोंको अपने दुश्मन नहीं मानना चाहिए; बल्कि अपने जैसा मनुष्य मानना चाहिए, जिनमें सहृदयताका सर्वथा अभाव नहीं है । हमारे सभ्य और शिष्ट आचरण के कारण उनकी हर तरहकी शंका अथवा कटुता मिटे बिना नहीं रह सकती । मैं जानता हूँ कि एक ओर तो नियम पालनका और दूसरी ओर घोर कानून-भंगका यह पथ बहुत दुर्गम है; परन्तु स्वराज्यका सुगम राजमार्ग तो और कोई है ही नहीं । देशने बहुत सोच-विचारके उपरान्त इस तंग लेकिन सीधे रास्तेको पसन्द किया है। सीधी रेखाकी तरह यह पथ छोटेसे-छोटा है । परन्तु जिस तरह आपको सरल रेखा खींचने के लिए अपना हाथ स्थिर रखनेकी और पूर्व अभ्यास करने की जरूरत है उसी तरह यदि हम अपने स्वीकृत मार्ग में बिना भटके आगे बढ़ना चाहते हैं तो हमें सतत नियम-पालन करने और अपने उद्देश्यपर अटल रहनेकी बड़ी आवश्यकता है ।

मैं यह बात जानता हूँ और मुझे इसका दुःख है कि जेल किसी भी सत्याग्रहीको फूलोंकी सेजकी तरह सुखदायी नहीं हो सकती । और जब मैं पण्डित मोतीलाल नेहरू और देशबन्धु चित्तरंजन दासके सुखी जीवनकी याद करता हूँ तब मेरा सिर चक्कर खाता है और दिल धड़कता है । कहाँ उनके सजे हुए सुन्दर विशाल कमरे, अनगिनत दास-दासियाँ और हर तरहके धन-सुलभ आराम और ऐश्वर्य के साधन, और कहाँ ये जेलकी ठण्डी और भद्दी कोठरियाँ जिनमें उन्हें दीवानखानोंके मधुर संगीतकी बजाय कैदियों की बेड़ियोंकी कर्कश झंकार सुनाई देगी । लेकिन साथ ही मुझे खयाल आता है कि स्वराज्य तो ऐसे ही वीरोंके आत्म-त्यागसे मिलेगा । मैं यह सोचकर अपना दिल मजबूत कर लेता हूँ । जिस आत्म-बलिदानकी रूपरेखा हमने अपने लिए बनाई है उससे कहीं अधिक कुरबानियाँ दक्षिण आफ्रिका, कैनेडा, इंग्लैंड, फ्रांस और जर्मनीके महान् से-महान् लोगोंको करनी पड़ी थीं ।