सार जब जैसा ठीक लगे वैसी कार्रवाई करनी है ? परन्तु मुझे और अधिक अनुमान करनेकी आवश्यकता नहीं, क्योंकि जबतक ये टिप्पणियाँ पाठकोंतक पहुँचेगी तबतक भाग्यका निर्णय हो ही चुकेगा ।
सुदूर सिलचरसे
यह बाबू तरुणराम फूकनका सिलचर जेलसे, जिसे उन्होंने इस बार साधना- आश्रमका नाम दिया है, भेजा गया दूसरा पत्र[१] है ।
यंग इंडिया, २३-२-१९२२
१८५. एक शानदार बयान
मौलाना अबुल कलाम आजाद द्वारा अदालतमें दिया गया बयान मुझे अभी-अभी मिला है। यह घने टाइप किये हुए कुल तेतीस फुलस्केप पृष्ठोंमें है । लेकिन है पढ़ने लायक चीज । जाहिर है कि मूल बयान मौलाना साहबकी मँजी हुई उर्दू में है । अंग्रेजी अनुवाद भी बुरा नहीं है, लेकिन इससे बेहतर अनुवाद होता तो ज्यादा अच्छा रहता । इस बयान में काफी साहित्यिक सौन्दर्य है । यह विशद और ओजपूर्ण है । यह निर्भय और दो टूक, लेकिन संयत है। इस पूरे बयानमें व्यंग्यका एक स्वर है । यह एक ओजस्वी निबन्ध है, जिसमें खिलाफत और राष्ट्रीयताके बारेमें मौलानाके विचार हैं । आशा है, इसकी छपी हुई प्रतियाँ उपलब्ध हो सकेंगी। मौलानाके सचिवको मेरी सलाह है कि इस बयानका सावधानीसे पुनरीक्षण करा लें ।
इस वक्तव्यको पढ़ने के बाद मुझे पहलेसे भी कहीं अधिक स्पष्ट रूपमें यह आवश्यक प्रतीत हुआ कि अदालतोंका बहिष्कार किया जाना चाहिए। इस प्रकारके बहिष्कार के बिना हम निर्भीकतापूर्ण वह शक्ति कभी प्राप्त नहीं कर सकते थे जो हमने प्राप्त की है। तब अध्यक्ष महोदय,[२]लालाजी और पण्डितजीकी महान् घोषणाओंकी बजाय हम छोटे-छोटे शाब्दिक झगड़ोंमें फँस जाते जो किसी भी राष्ट्रकी उन्नतिमें बाधक होते हैं । बहिष्कार आन्दोलनके बिना हमें मौलानाका यह वक्तव्य भी नहीं मिलता जो अपने-आपमें एक अच्छी राजनीतिक शिक्षा भी है ।
सन् १९१९ और १९२२के बीच कितना फर्क आया है - १९९९में सजाओंका उत्तेजनापूर्ण भय और हर प्रकारकी सफाई और बचावकी चिन्ता; १९२२में सजाओंकी ओरसे पूरी लापरवाही और किसी तरहका बचाव नहीं । १९१९ में राष्ट्र उसके सिवा और कुछ कर भी नहीं सकता था; १९२२में वह जो कुछ कर रहा है उसके अलावा