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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

न दिया जाये तो क्या किया जाये। हमें शान्तिपूर्ण ढंगसे धरना देनेका अधिकार है, इस विषय में तो मुझे तनिक भी शंका नहीं है । शान्तिपूर्ण धरना हमेशा शान्त नहीं होता, यह मैं जानता हूँ और इसीलिए इसका विरोध करता हूँ। इसके अतिरिक्त जबतक विदेशी कपड़े के प्रति अरुचि भाव सामान्य नहीं हो जाता तबतक धरना देना भी मुझे अनुचित लगता है। ऐसा भी हो सकता है कि जिस रिवाजका विरोध करने- के लिए जनमतको पूरी तरह तैयार न किया गया हो उस रिवाजको दूर करने के लिए दिये गये धरनेको लोकमत सहन न करे। यह तो हुआ एक पक्ष ।

दूसरा पक्ष यह है कि जहाँ प्रतिज्ञा भंग की गई हो वहाँ प्रतिज्ञा भंग करनेवालों- को शरमिन्दा करनेका और उनसे लोगोंको सावधान करनेका उपाय भी हमारे पास अवश्य होना चाहिए। इसके दो सभ्य उपाय हैं। - एक धरना और दूसरा सम्बन्ध- त्याग। दोनोंमें एक ही भाव निहित हैं। जो व्यापारी ऐसी हुंडीको जिसकी मियाद पूरी हो चुकी हो वापस करता है उस व्यापारीके साथ व्यवहार बन्द करनेका समाज- को अधिकार है। इस सम्बन्ध-त्याग में जाति-बहिष्कार अथवा सेवा बहिष्कार नहीं आता, केवल व्यापार त्याग आता है। ऐसा त्याग हमेशा सम्भव नहीं होता इसलिए धरना देना ही एकमात्र व्यावहारिक और सरल मार्ग रह जाता है। मैं यह टिप्पणी कांग्रेसकी बैठक से पहले, मंगलवारके दिन लिख रहा हूँ ।[१]कांग्रेस क्या निर्णय करती है, यह देखना है। लेकिन झरिया के लोगोंको तो मैं यही सलाह देता हूँ कि जहाँ स्पष्ट रूपसे प्रतिज्ञा भंग की गई हो वहाँ उन्हें धरना देनेका अधिकार है - हाँ, यह धरना पूरी तरह शान्तिमय होना चाहिए। उस अधिकारका उपयोग करनेसे पहले यह जरूरी है कि जिन लोगोंने वचनभंग किया है वे उनके पास जायें तथा उनसे विनती करें व उन्हें सावधान करें। सब प्रतिबन्धोंके सम्बन्धमें इतना याद रखना चाहिए कि प्रतिबन्ध शान्ति बनाये रखनेके लिए ही लागू किये जाते हैं । जहाँ शान्ति भंग होनेका तनिक भी भय न हो वहाँ धरना देनेका प्रतिबन्ध होनेके बावजूद धरना दिया जा सकता है। रामजस बाबू-जैसे प्रतिष्ठित सज्जनको वचन भंग करनेवाले व्यापारीकी दुकानपर धरना देनेसे कौन रोक सकता है ? हाँ, इसके साथ यह शर्त अवश्य है कि रामजस बाबूको भी अपने साथ हजार स्वयंसेवकोंकी टोली रखकर धरना नहीं देना चाहिए । जहाँ धरना देनेका उद्देश्य भय उत्पन्न न कर लज्जित करना है, उसमें धरना देनेवालों की संख्या बहुत ज्यादा न हो । उसके लिए दो-चार आदमी बहुत हैं और वे जाने-माने चरित्रवान् होने चाहिए ।

लेकिन मेरी तो व्यापारी मात्र से विनम्र प्रार्थना है कि वे जनता अथवा कांग्रेसके स्वयंसेवकों को धरना देनेकी परेशानीमें डालने या उन्हें जिम्मेदारी उठानेके लिए मजबूर न करें । देशमें विदेशी कपड़ेका त्याग बड़े प्रमाणमें हो रहा है। उससे देशके लाखों रुपये बच गये हैं और इनमें से हजारों गरीबोंके घरोंमें गये हैं। ऐसे अर्थलाभ और धर्मलाभकी प्रवृत्तिको वे अपने स्वार्थकी खातिर वचन भंग करके कैसे रोक सकते हैं ? उनकी दुकानोंपर धरना देना पड़े यह बात उन्हें कैसे सहन हो सकती है ?

 
  1. अ० भा० कां० कमेटी की बैठक २४-२-१९२२ को दिल्लीमें हुई थी ।