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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


साथ इस सहयोग को और भी ये दो संगठन कहीं विरोधी दूसरी आँखके पूर्ण सहयोग की करनी चाहिए। मजबूत होना चाहिए। इस बातका भी अन्देशा है कि दिशाओं में न बढ़ने लगें। जैसे एक आँखको प्रतिक्षण जरूरत है वैसे ही हरेक आदमीको दूसरेकी सहायता

इसमें शक नहीं कि दोनों संगठनों के काम में फर्क रहेगा । लेकिन बुनियादी मसलोंपर, जैसे अहिंसा, खद्दर और सभी जातियोंकी एकतामें फर्क या कमीबेशीकी कोई गुंजाइश नहीं है। मुझे मालूम हुआ है कि जमीयतको यह बताया गया है कि खद्दर हमेशा नहीं मिलता। बेशक कुछ जगहों पर, जहाँ कार्यकर्त्ताओंने अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं की है, वह सुलभ नहीं है। लेकिन उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि बम्बई और अहमदाबादमें और बहुत-सी दूसरी जगहों में जितना भी चाहिए उतना खद्दर मिल सकता है। गुजरात प्रान्तीय कांग्रेस कमेटी निम्नलिखित दरोंपर खद्दर देती है : कोटके मतलबका खदर : ९ आने गज़, कमीज के मतलबका खद्दर : ७ आने गज़ ।

अनावश्यक घबराहट

मुझे दुःख है कि कुछ हिन्दू और मुसलमान, दोनों ही इस बातसे घबराये हुए हैं कि मैं पूरी तौरसे अहिंसाका कायल हूँ | मैं उसके प्रचार में जोर-शोरसे लगा हुआ हूँ और इसके सम्बन्ध में किसी प्रकारका समझौता नहीं करता। मुझे दुःख है कि इससे कुछ हिन्दू-मुसलमान दोनों घबरा गये हैं । वे मानते हैं कि मैं धर्मकी जड़ें खोखली कर रहा हूँ और अपने दुराग्रही प्रचार द्वारा भारतको ऐसी हानि पहुँचा रहा हूँ जिसकी पूर्ति होना असम्भव है। मालूम होता है कि वे हिंसाको अपना धर्म मान बैठे हैं । यदि मैं उनके सामने पूर्ण अहिंसाकी बात करता हूँ तो उनकी भावनाओंको ठेस लगती है और वे धड़ाधड़ 'महाभारत' और 'कुरान' के वचन पेश करने लगते हैं कि देखिए इनमें हिंसा की प्रशंसा की गई है और उसकी अनुमति भी दी गई है। 'महाभारत' के सम्बन्ध में तो मैं बिना किसी संकोचके अपनी राय जाहिर कर सकता हूँ; लेकिन मैं समझता हूँ, परम धार्मिक मुसलमान भाई भी इस बातको अस्वीकार नहीं करेंगे कि हजरत पैगम्बर के सन्देशको समझ लेनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त है । मैं साहसके साथ कहता हूँ कि हिंसा किसी भी सम्प्रदाय के मूल सिद्धान्तों में नहीं आती। बल्कि अधिकांश धर्मो में अधिकांश अवसरोंपर अहिंसाका पालन ही कर्त्तय माना गया है और हिंसाको तो किसी-किसी परिस्थितिमें ही जायज कहा गया है । लेकिन मैंने तो भारतवर्ष के सामने अहिंसा के आत्यंतिक रूपको रखा ही नहीं है। कांग्रेसके मंचसे जिस अहिंसाका प्रचार मैं करता हूँ वह तो बतौर एक व्यवहार-नियमके है। लेकिन व्यवहार-नियमपर भी तो मन, वचन और कायासे दृढ़ रहने की आवश्यकता है । यदि मैं इस बातको मानता हूँ कि प्रामाणिकता सर्वश्रेष्ठ व्यवहार-नियम है, तो जबतक मैं ऐसा मानता हूँ तबतक मेरा मन, वचन और कायासे प्रामाणिक रहना जरूरी ही है, अन्यथा में पाखण्डी कहलाऊँगा । अहिंसा व्यवहार-नियम है, अतएव जब वह असफल या बेकार सिद्ध हो जाये तब यथासमय सूचना देकर उसका त्याग किया जा सकता है। लेकिन यह तो एक साधारण नीति-नियम है कि जबतक हम एक व्यवहार-नियमको मान रहे हैं