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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं, उनका एकमात्र हथियार उनकी पवित्रता है। शरीरसे शक्तिशाली लोग, उद्दण्डता के जोशमें आकर प्रायः अपने 'कठोर तत्त्वों को ही गतिमान बना देते हैं और मानो सर्वशक्तिमान् प्रभुके कार्यको हथिया लेना चाहते हैं। परन्तु उस 'कठोर तत्त्व' का वास्ता जब ऐसे तत्त्वसे पड़ता है जो उसके जैसा नहीं, बल्कि उससे बिलकुल विपरीत है, तो वह हवामें घूँसा मारने जैसा हो जाता है । एक ठोस पदार्थ केवल एक अन्य ठोस पदार्थपर ही हमला कर सकता है और उसके विरुद्ध बढ़ सकता है । आप हवामें किले नहीं बना सकते । इसलिए जो मुसलमान अधीर हैं उन्हें यह वस्तुस्थिति, जो बिलकुल साफ है, समझ लेनी चाहिए कि भीड़का हलका और असंगठित तूफान चाहे जेल जाने, चाहे इमारतोंको जलाने, चाहे शोर-भरे प्रदर्शन करने के रूपमें प्रकट हो, वह उन लोगों के 'कठोर तत्त्व 'की संगठित उद्दण्डताका मुकाबला नहीं कर सकेगा जो अपनेको 'संसारके सर्वाधिक दृढ़ व्रती' राष्ट्र समझते हैं । इस भयंकर उद्दण्डताका मुकाबला तो केवल पवित्र और विनीत व्यक्तियोंकी पूर्ण विनम्रता ही कर सकती है । ईश्वर निःसहाय की सहायता करता है; परन्तु जिन्हें यह विश्वास है कि वे स्वयं कुछ कर सकते हैं उनकी नहीं करता। 'कुरान' के हरएक पृष्ठमें मुझ जैसे गैर-मुस्लिमको सबसे महान् पाठ यही मिलता है। 'कुरान' का हर सफा करुणामय और दयालु भगवान् के नामसे शुरू होता है। इसलिए हम शरीरसे दुर्बल भले ही हों, पर हमें आत्मासे शक्तिशाली होना चाहिए

यदि मुसलमानोंका अहिंसाकी नीतिमें विश्वास है तो उन्हें उसे उचित मौका देना चाहिए । लेकिन यदि उनके दिलोंमें गुस्सा अर्थात् हिंसा भरी हुई है, तो वे उसे आजमा ही नहीं सकेंगे ।

जैसी स्थिति है उसमें हम गाली-गलौज, धमकी, बल-प्रदर्शन और हिंसात्मक धरने से जितने लोगोंको अपने साथ सहयोग करनेके लिए मजबूर कर पायेंगे, उनसे कहीं अधिकको अपने खिलाफ कर लेंगे । और जब हम खुद जोर-जबरदस्तीसे सरकारके साथ सहयोग करने को तैयार नहीं हैं तो उसी तरह दूसरोंसे सहयोग प्राप्त करनेका साहस हम कैसे कर सकते हैं? जिस नियमके पालनकी हम दूसरोंसे आशा रखते हैं, क्या उसका पालन हमें खुद नहीं करना चाहिए ?

सेवरकी सन्धिमें[१]यदि हमारी इच्छानुसार संशोधन नहीं किया जाता है तो मामला इससे खत्म नहीं हो जाता । भारतका बल तो तभी प्रमाणित होगा जब वह अपनी माँगसे रत्ती-भर पीछे न हटनेके संकल्पपर अटल रहे। सब-कुछ हो जानेपर भी हो सकता है, मुस्तफा कमाल जजीरत-उल-अरबके[२]निपटारेपर जोर न दें। जबतक मुसलमानोंको वह अक्षुण्णरूपमें वापस न मिल जाये, तबतक हमें संघर्ष जारी रखना चाहिए। यदि मुसलमान यह सोचते हैं कि वे हथियारोंके बलपर अपना मकसद हासिल कर सकते हैं, तो उन्हें इस अहिंसा सम्बन्धी इकरारसे बेशक दामन छुड़ा लेना

 
  1. इस सन्धि द्वारा टर्की साम्राज्यका विभाजन हुआ था ।
  2. इसके शाब्दिक अर्थ है ' अरबका टापू' । मुसलमान धर्माधिकारियोंको व्याख्याके अनुसार इसमें सीरिया, फिलस्तीन, मेसोपोटामिया तथा अरवका प्रायद्वीप शामिल हैं ।