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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


४. कुटुम्बके प्रत्येक व्यक्तिको विधवाके प्रति पूरा आदर भाव रखना चाहिए। माता-पिता अथवा सास-ससुरको उसके लिए ज्ञान-वृद्धि के साधन जुटाने चाहिए।

मैंने ये नियम इस गरजसे नहीं दिये हैं कि इनका पालन अक्षरशः किया जाये। ये तो केवल मार्गदर्शक हैं। हाँ, इस बातमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है कि ये नियम विधवाके प्रति हमारे कर्त्तव्यके दिशा दर्शक हैं।

तब इन तथा ऐसे नियमोंके पालनकी व्यवस्था कौन करे? हिन्दू-समाजके पास भिन्न-भिन्न जातियाँ इस कार्यके लिए कुदरती साधन हैं। परन्तु जबतक उनमें सुधार न हो तबतक जो माँ-बाप इन नियमोंके पक्षमें हों वे क्या करें? वे जाति में सुधार करने की कोशिश करें। और यदि उन्हें इसमें तत्काल सफलता न मिले तो वे बन्धन-मुक्त होकर विधवाके लिए योग्य वरकी खोज करें। दोनों तरफके लोग जातिसे बाहर रहने के लिए तैयार हों और बाहर रहकर भी जातिवालोंसे अनुनय-विनय करें; जातिके पंचोंके दिलको चोट न पहुँचायें, सत्याग्रह करनेका इरादा न करें अथवा करें भी तो यही समझें कि हमारा नम्रताके साथ जातिसे बाहर रहना ही एक प्रकारका सत्याग्रह है। यदि ऐसा विवाह अनिवार्य समझकर किया जायेगा और यदि उसका उद्देश्य संयमकी रक्षा करना ही होगा और यदि इस बहिष्कृत कुटुम्बका आचरण शुद्ध होगा तो पंच लोग खुद ही उन्हें फिर जातिमें ले लेंगे; यही नहीं बल्कि वे उस सुधारको भी स्वीकार कर लेंगे और दूसरी दीन विधवाओंपर होनेवाले अत्याचारकी जड़ ही कट जायेगी।

ऐसे सुधार एकाएक नहीं हो सकते। उनका बीजारोपण हो जाना ही पर्याप्त है। फिर उससे वृक्ष बने बिना न रहेगा।

यह तो मैंने एक छोटा-सा सुधार बताया है तथा बड़े सुधारके असम्भव लगने के कारण ही यह छोटा सुधार सुझाया है। सच्चा सुधार तो यह है कि स्त्रीकी तरह पुरुष भी विधुर हो जानेपर फिर विवाह न करे। यदि हम हिन्दू धर्मके रहस्यको समझ लें तो हम कष्ट साध्य संयमको शिथिल करनेकी अपेक्षा दूसरे उसी प्रकारके संयमोंको जीवनमें अपनाकर उसे अधिक दृढ़ करेंगे। यदि पुरुष विधुर रहे तो स्त्रीको अपना वैधव्य भाररूप मालूम न हो। फिर यदि पुरुष विधुर रहें तो वर्त्तमान बेजोड़ विवाह और बाल-विवाह बन्द हो जायें।

हाँ, एक खतरा रहता है। हमें उससे बचना चाहिए। मैंने एक दलील सुनी है : "वैधव्य सर्वथा उत्तम है। यदि बाल-विधवाओंकी संख्या कम हो तो उन्हें पुनर्विवाहके झंझट में पड़नेकी क्या आवश्यकता है? हम तो पत्नीके न रहनेपर पुरुषको भी विधुर ही रखना चाहते हैं और बाल-विवाहको भी निर्मूल करना चाहते हैं। इसलिए किसी भी अवस्थामें स्त्रियोंके पुनर्विवाहकी आवश्यकता नहीं है।" यह दलील खतरनाक है, क्योंकि वास्तवमें तो यह शब्दजाल मात्र है। यह दलील कतिपय अंग्रेज मित्रोंकी इस दलीलकी तरह है : "आप तो अहिंसावादी हैं। आप हमें भी अहिंसा-धर्म सिखाना चाहते हैं। अतः हम चाहे कितनी ही हिंसा करते रहें परन्तु आप अपने लोगोंसे यह नहीं कह सकते कि वे हिंसाका मुकाबला हिंसासे करें। इस दलीलमें जो भूल है वह हमसे जाने-अनजाने हमेशा हुआ करती है। ऐसी दलील