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कच्छी भाई-बहनोंसे

मेरे प्रति यदि कुछ आदर-भाव हो तो मैं उन्हें मुझमें जो अच्छा हो, उसका अनुकरण करते हुए अवश्य देखना चाहता हूँ। कच्छी भाई-बहनोंने मुझपर प्रेम ही बरसाया है। कच्छी भाई-बहनोंने मुझे मेरे कार्य के लिए पैसा भी बहुत दिया है।

लेकिन मेरा पेट ऐसा है कि भरता ही नहीं है।

अपनी उत्तरावस्थामें प्रभुका भजन करने के मेरे पास दो तीन साधन है। उनमें मेरा जीवन समाप्त हो ऐसा मैं चाहता हूँ। मुझे मुखसे रामनाम लेना ही प्रिय है। लेकिन यदि वह नाम मेरे हृदयमें अंकित न हो तो केवल मुखसे ही जपा हुआ नाम मेरी अधोगति ही करेगा। जो हृदयमें रहता है वह करनीम अवश्य उतरता है। इसीसे मैंने सेवाधर्मको ही धर्म-रूपमें जाना है।

इसीसे मुझे चरखा और अस्पृश्यता निवारण उचित लगे हैं। चरखेके द्वारा मैं कंगालसे-कंगाल भारतीयकी सेवा करता हूँ। उस यज्ञमें भाग लेने के लिए मैं महाराव साहब और उनकी प्रजाको निमन्त्रित करता हूँ।

लेकिन कच्छके लोग तो साहसिक हैं। वे व्यापारके अर्थ-सागरको पार करनेवाले लोग है। वे चरखा चलाये और खादी पहनें केवल इतना ही पर्याप्त नहीं। मैं उनसे यह आशा रखता हूँ कि हिन्दुस्तानके हाड़-पिंजरमें कुछ मांस चढ़ाने के लिए वे मुझे धन दें। इसी तरह यह बात भी भलनी नहीं चाहिए कि देशबन्धकी स्मतिको बनाये रखना है। मेरे कानमें भनक पड़ी है कि मैं तो कच्छका पैसा ले जाकर दूसरी जगह उसका उपयोग करता है। यह बात सच है, लेकिन यह शिकायतके रूपमें नहीं कही जानी चाहिए। मैं कच्छ के लिए पैसा किस लिए उगाहूँ। कच्छमें कंगाली हो तो यह महाराव साहबपर लांछन है। कच्छ के करोड़पतियोंपर लांछन है। कच्छमें तो मैं रहा नहीं हूँ। वहाँ मैं किसकी मार्फत धन खर्च करूँ। कच्छ के लोग कच्छके लिए स्वयं ही पैसा इकट्ठा करें और उसका उपयोग करें यही शोभनीय है। मेरा तो धन्धा ही यह है कि जहाँसे मिले वहाँसे पैसा उगाहकर जहाँ जरूरत दिखाई दे वहाँ तथा जो जरूरी जान पड़े उस काममें अथवा किसी पूर्व-निश्चित शुद्ध कार्य में उसे खर्च किया जाये। कच्छमें धनाढय वैष्णव है। मैं स्वयं वैष्णव होनेके कारण वैष्णव होनेका कुछ अर्थ जानता हूँ। जो वैष्णव अन्त्यजसे छू जानेपर अपनेको अपवित्र हो गया मानता है, वह वैष्णव है, इस वातको मेरी आत्मा कभी स्वीकार ही नहीं कर सकती। जैसे चरखेके द्वारा मैं कंगाल [भारत] माँकी सेवा करना चाहता हूँ उसी तरह अस्पृश्यता-निवारणके द्वारा अन्त्यज-सेवा करके मैं हिन्दूधर्मका शुद्धीकरण करना चाहता हूँ। अस्पृश्यताको सँजोना और हिन्दू धर्मकी रक्षा करना ये दो परस्पर विरोधी वस्तुएँ हैं। मुझसे अन्त्यजों का तिरस्कार देखा अथवा सहा नहीं जाता। अन्त्यजोंको छोड़कर इस लोक अथवा परलोकका राज्य भी मिलता हो, तो भी वह मुझे स्वीकार्य नहीं। मेरी इच्छा है। कि कच्छ के वैष्णव अपना धर्म समझें।

याद रखिये कि राजा युधिष्ठिरने प्राप्त स्वर्गमें अपने साथके कुत्तेको छोड़कर जानेसे इनकार कर दिया था। उसका, आपका और मेरा धर्म एक ही है। निषाद राज जिसका मेवा रामचन्द्रने प्रेमसे स्वीकार किया था, कौन था? वैसोंको भरतने