विक्रेता परवाना अधिनियम पुनरुज्जीवित : ४ ४९१ भारतीयोंकी स्थिति तो बगैर मताधिकारके ही अधिक अच्छी रहेगी, क्योंकि इससे विधानसभा अपने ऊपर एक बहुत भारी जिम्मेदारी ले रही है । अब यह देखना उसका काम होगा कि भारतीयोंकी स्वतंत्रतामें किसी भी प्रकार कमी नहीं होने पाये। दुर्दैवकी बात तो यह थी कि इस वचनके पीछे कानूनका बल नहीं था । इसलिए यद्यपि यह वचन खुद तत्कालीन प्रधानमन्त्री के मुँहसे निकला था और इसलिए अधिकारयुक्त और प्रातिनिधिक मत था और इसीलिए विधानसभाके लिए भी नैतिक दृष्टिसे बन्धनकारक था, फिर भी आचरण तो सर जॉनके इस उदारता-भरे वचनके बिलकुल विपरीत ही रहा है । मताधिकार छीनने-वाले कानूनके तुरन्त बाद ही प्रवासी अधिनियम और विक्रेता-परवाना अधिनियम बने हैं । फिर भी हम इस दूसरे कानूनपर ही सबसे अधिक जोर देना चाहते हैं, क्योंकि इसका असर उन लोगोंकी सुख-सुविधापर पड़ रहा है, जो पहले ही से यहाँ बसे हुए हैं और जिनके लिए वह कानून सदा ऊपर लटकती तलवारके समान है। ब्रिटिश भारतीयोंके हितोंको यह किस-किस प्रकार हानि पहुँचा रहा है यह हम पहले ही बता चुके हैं। पिछले हफ्ते हमने जिस दरख्वास्त 'का उल्लेख किया था, उसे इस अंकमें हम अन्यत्र दे रहे हैं। कानूनका अमल किस प्रकार किया जा रहा है, यह उसमें विस्तारके साथ बताया गया है। इसके अलावा आजकल डर्बन तथा न्यूकैसिलकी नगर परिषदोंकी सरगरमीके खयाल से वह अत्यन्त सामयिक भी है। जो बात हमारी समझमें नहीं आ रही है सो यह है कि इस कानूनमें जो भाग सबसे अधिक आपत्तिजनक है, जिसमें व्यापारियोंको परवाने देनेके मामलेमें नगर परिषदोंके निर्णयोंपर सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनेका अधिकार छीना गया है, उससे नगर परिषद इतनी बुरी तरह क्यों चिपटी है ? हम पहले ही बता चुके हैं कि एक अवैधानिक कार्रवाईका सहारा लिये बगैर भी उनका मतलब आसानीसे और उतनी ही अच्छी तरह निकल सकता है। इस विषयमें टाइम्स ऑफ नेटाल भारतीय दृष्टिकोणको बहुत ही अच्छी तरह प्रकट करता है। हम उसीको उद्धृत कर देना अधिक उचित समझते हैं। वह लिखता है : आप भारतीय व्यापारियोंसे सफाई सम्बन्धी तमाम नियमोंका पालन जरूर कर- वाइए, हिसाब-किताब अंग्रेजीमें रखवाइए, और जो भी कुछ अंग्रेज-व्यापारी करते हैं, वह सब करवाइए । परन्तु जब इन सबका वे पालन कर चुकें तब तो उनके प्रति न्याय कीजिए । कोई भी ईमानदार आदमी यह स्वीकार नहीं करेगा कि इस नये विधेयक (विक्रेता - परवाना अधिनियम) में उनके प्रति या उस समाजके प्रति न्याय हुआ है, क्योंकि जो प्रतिस्पर्धा समाजके लिए लाभदायक है उसे अपने मार्गमें से हटानेकी सत्ता वह स्वार्थी लोगोंके हाथोंमें दे देता है और उन्हें अपनी जेबें भरनेकी सहूलियत कर देता है। यह बात सन् १८९८ में लिखी गई थी। यह कथन उस समय जितना सत्य था उससे दूना सत्य आज है । ब्रिटिश भारतीय सात वर्षसे विक्रेता परवाना अधिनियमका अमल देख रहे हैं। उसके आधारपर हम यह कह रहे हैं। अगर अत्यधिक दुर्भावने उपनिवेशवासियोंकी न्याय- भावनाको निपट अन्धा नहीं बना दिया है तो उन्हें यह समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि आज इस कानूनके कारण प्रत्येक भारतीयका परवाना घोर अनिश्चिततामें पड़ गया है, और अनिश्चित अवस्था दूर होनी ही चाहिए। आप उसपर जितनी कड़ी शर्ते लादना चाहें लाद दीजिए । परन्तु उनके पूरी हो जानेपर तो कमसे कम उसे अपनी स्थितिको सुनिश्चित अनुभव करने दीजिए। जबतक ब्रिटिश भारतीयोंके प्रति इतना साधारण-सा न्याय भी नहीं १. “ प्रार्थनापत्र : चेम्बरलेनको", दिसम्बर ३१, १८९८ । Gandhi Heritage Portal
पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 3.pdf/५३३
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