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५६०. पत्र: आर॰ बी॰ ग्रेगको

साबरमती
२३ मई, १९२६

प्रिय गोविन्द,

पत्रके लिए धन्यवाद। बड़ा दिलचस्प पत्र लिखा है तुमने। अब मैं स्कूलकी रूप-रेखा और उसका उद्देश्य समझ गया। क्या ये कोयम्बटूरवाले सुन्दरम् ही है? अगर ऐसा हो तो उन्हें मेरी ओरसे बधाई दीजिए और उनसे यह पूछिए कि वे वहाँ कैसे जा पहुँचे। वहाँ तो वे अपनी पत्नीके साथ ही रह रहे होंगे। अगर बात ऐसी हो तो बताइएगा कि वे क्या करती हैं।

मैं जानता हूँ कि स्टोक्स बहुत बड़ा और अच्छा काम कर रहे हैं और उसमें तन-मन-धनसे जुटे हुए हैं। काश, मैं उन्हें यह समझा पाता कि उन्हें अपने स्कूलके लिए सरकारी मान्यताकी जरूरत नहीं है। कोई-न-कोई ऐसा उपाय निकलना ही चाहिए जिससे लड़के सरकारी संरक्षणके बिना जीविकोपार्जन कर सकें। यह रास्ता सुगम नहीं है, लेकिन यही एक रास्ता है जिसपर उन्हें या कहूँ कि हम सबको चलना चाहिए। लेकिन, मुझे उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए। उन्हें तो उनकी अन्तरात्मा जैसा निर्देश दे, उसीके अनुसार काम करना चाहिए। भले ही दूसरोंको ऐसा लगे कि वे गलती कर रहे हैं।

अगर मैं फिनलैंड गया हो तो आपकी सारी हिदायतें ध्यानमें रखूँगा, मैं बहुत सारे गरम कपड़े साथमें ले जाऊँगा और मैं आपसे वादा करता हूँ कि अगर सर्दी इतनी ज्यादा महसूस हुई तो मैं अपनेको कपड़ोंसे ऐसा लपेट लूँगा कि लोगोंके लिए पहचानना मुश्किल हो जायेगा। अगर फिनलैंड जाऊँगा तो ऐसी व्यवस्था कर दूँगा जिससे जो भी नोट्स लिये जायें, सबकी नकल आपको मिल जाये। इस बीच आप वे सारे सवाल मुझे लिख भेजें जो आपके मनमें उठे हैं।

मैं जानता हूँ कि अहिंसाका मार्ग कंटकाकीर्ण है। ये काँटे कदम-कदमपर चुभते हैं और कभी-कभी तो इस मार्गपर चलनेवालेके पैरोंसे खून भी निकलने लगता है।

लगभग एक सप्ताह तक मैं बाहर रह आया हूँ। इसमें से कुछ घंटे महाबलेस्वरमें गवर्नरके साथ बातचीत करनेमें बिताये। मैंने उन्हें यह समझानेकी कोशिश की कि कृषि सम्बन्धी शाही आयोगको अगर कोई सिफारिश करनी चाहिए तो यही कि चरखेको लोकप्रिय बनाया जाये और जनताको इस बातके लिए आश्वस्त कर दिया जाये कि वह जितना भी सूत कातेगी, सब सरकार खरीद लेगी और उससे लोगोंके लिए कपड़े बुनवायेगी।