२४०. पत्र : धनगोपाल मुकर्जीको
आश्रम
साबरमती
२९ जुलाई, १९२६
आपका पत्र मिला।[१] आप जान गये होंगे कि में आखिरकार हेलसिंगफोर्स जा नहीं सका।
'आत्मकथा' का प्रथम भाग पुस्तक रूपमें तुरन्त ही नवजीवन प्रेससे प्रकाशित होगा। मैं कह नहीं सकता कि इस 'आत्मकथा' की कोई बहुत बड़ी माँग होगी या नहीं; और मैंने यह तो सोचा ही नहीं कि कोई पाश्चात्य प्रकाशक इस पुस्तकको प्रकाशित करना चाहेगा। कुछेक ऐसे प्रकाशकोंने, जिन्हें मैं नहीं जानता, मुझसे पुस्तकका अधिकार पानेकी बात चलाई थी। लेकिन मैंने उन सबसे कहा कि मैं अभी तैयार नहीं हूँ। अमेरिकामें ग्रन्थस्वत्वके बारेमें रेवरेण्ड होम्सके साथ पत्र-व्यवहार चल रहा है; लेकिन अभी कुछ तय नहीं हुआ है।
मेरे विचारसे प्रार्थना और मनन अत्यन्त महत्त्वकी चीजें हैं।[२] मैं इन दो चीजोंको अलग-अलग नहीं मानता। मैं भोजनके बिना निर्वाह कर सकता हूँ परन्तु प्रार्थनाके बिना नहीं। सम्भवतः प्रार्थना सम्बन्धी हमारी धारणाएँ भिन्न हैं। हम आश्रममें जो प्रार्थना करते हैं उसमें ईश भजन आदि होता है। इसमें ईसाई प्रार्थनाकी तरह ऐसी कोई बात नहीं होती जिसमें लोग निश्चित बातोंकी माँग करते हों। प्रार्थना तो नित्य शुद्धिके लिए की जाती है। शरीर शुद्धिके लिए नित्य स्नानका जो महत्त्व है, हृदय और मस्तिष्कके लिए वही महत्त्व प्रार्थनाका है।
हृदयसे आपका,
नेशनल सिटी बैंक ऑफ एन० वाई०
४१, बुलेवर्ड होसमैन
अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १०७९०) की फोटो-नकलसे।
- ↑ इस पत्रमें गांधीजीकी सम्भावित यूरोप-यात्रा और यंग इंडिया में धारावाहिक रूपसे आत्मकथाके प्रकाशनपर हर्ष प्रकट किया गया था और आशा की थी कि वह शीघ्र ही पुस्तकके रूपमें भी प्रकाशित कर दी जायेगी और विदेशोंमें भी अच्छे प्रकाशकोंको उसके अधिकार दिये जायेंगे। उन्होंने इंग्लैंड और अमेरिका के कुछ प्रकाशकों के नाम भी सुझाये थे।
- ↑ मुकर्जीने अपने पत्रमें दैनन्दिन जीवनमें प्रार्थना के स्थानके विषय में प्रश्न किया था (एस० एन० १०७९०)।