ऐसे विद्यार्थी बड़ी संख्या में उत्पन्न हो जायेंगे तब भारतवर्ष नवीन चेतनासे ओतप्रोत हो जायेगा और फिर किसीको ऐसा प्रश्न ही नहीं करना पड़ेगा कि स्वराज्य कहाँ है।
ऐसे विद्यार्थियोंकी जबरदस्त फसल उत्पन्न करनेके लिए हमें केवल सच्चे राष्ट्रीय स्कूलोंका संचालन करना ही आवश्यक है, फिर उनमें चाहे कितने ही कम विद्यार्थी क्यों न हों। जहाँ माता-पिता बालकोंको भेजते हुए ऐसा मानते हैं कि हम मेहरबानी कर रहे हैं और जहाँ विद्यार्थी जाकर शान बघारते हों और इस तरहकी प्रत्यक्ष या परोक्ष धमकी देते हों कि यदि आपने मदद नहीं की तो हम सरकारके साथ हो जायेंगे, ऐसी जगह राष्ट्रीय शालाकी जरूरत नहीं है, ऐसा हमें निश्चय ही समझ लेना चाहिए। नाम मात्रकी ऐसी राष्ट्रीयशालाओंको बन्द कर दिया जाना चाहिए। अब तो हम असहयोगको समझने लगे हैं। हम उसका मूल्यांकन करनेकी स्थितिमें हैं। उसके खतरोंसे समाज बेखबर नहीं है और इसलिए असहयोग करनेवाली शालाओंका मार्ग स्पष्ट है। हम स्वयं अपने आपको भ्रमित न करें। उन्नति और अवनतिको समान समझते हुए अपने विश्वासपर दृढ़ रहकर यदि हम अपना काम करते चले जायें तो अन्तमें श्रेय ही मिलेगा।
यंग इंडिया, २-९-१९२६
३७५. विधवा-विवाह
एक पत्र-प्रेषक पूछते हैं, और यह प्रश्न ठीक हो है कि क्या हिन्दू विधवाओंके सम्बन्धमें दिये हुए सर गंगारामके आँकड़ोंमें सभी हिन्दू विधवाएँ आ जाती हैं—या केवल वे ही आती हैं जो प्रचलन न होनेके कारण पुनविवाह नहीं कर सकतीं? मैंने सर गंगारामसे इस प्रश्नका उत्तर मँगवा लिया है और उनका यह कहना है, “मेरे दिये हुए आँकड़े केवल उन्हीं श्रेणियोंतक सीमित नहीं हैं, जिनमें विधवा-विवाहका निषेध है, बल्कि उनमें समस्त हिन्दू जातिकी विधवाएँ आ जाती हैं। सर गंगारामने यह भी लिखा है :
केवल ऐसी श्रेणीकी विधवाओंके आंकड़े देना तो बेकार होता। हम सबको यह बात मालूम है कि मुसलमानों और ईसाइयोंमें विधवाओंका पुनर्विवाह हो सकता है। और उन जातियोंमें ऐसी अनेक विधवाएँ हैं जो कि आगे या पीछे विवाह करेंगी। मैं तो केवल हिन्दू विधवाओंपर से पुनर्विवाह की रुकावट हटवाना चाहता हूँ। में प्रत्येक विधवाको पुनविवाह करनेके लिए मजबूर करना नहीं चाहता।