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टिप्पणियाँ
कि हमें शिक्षाके सम्बन्धमें इस समय जो चन्द अधिकार प्राप्त भी हैं, वे सभी छिन जायेंगे। अर्थ-व्यवस्थाकी दिशामें हम यह देखते हैं कि १९२१ के संघ समझौता अधिनियम के अन्तर्गत लकड़ीकी चीजें बनाने, छपाई करने और इमारतें बनाने जैसे उद्योगोंमें संयुक्त परिषदें बनाई गई हैं। इन परिषदोंके अधीन हजारों भारतीय आ जाते हैं, किन्तु भारतीय कर्मचारियों और नियोजकोंको उन मजदूर संघों अथवा मालिक संघोंके सदस्य बननेकी अनुमति नहीं है जो कर्मचारियों और मालिकोंकी तरफसे बातचीत करते हैं और जो संयुक्त परिषदोंके चुनावों भाग लेते हैं। उनको इन संयुक्त परिषदोंमें मत देनेको अनुमति भी नहीं है। कर्मचारियोंके लिए वेतन और दूसरी सुविधाओंकी दरें ये संयुक्त परिषदें ही तय करती हैं। इसमें शक नहीं कि मजदूरोंकी हालत सुधारनेके लिए कानून बनानेमें हमें कोई आपत्ति नहीं; किन्तु हमें मजदूरीकी दरें तय करनेके तरीकेपर आपत्ति है। इसके अन्तर्गत दरें तय करनेमें भारतीय कर्मचारियों और मालिकोंकी कोई आवाज नहीं है, फिर भी उनको ये दरें माननी पड़ती हैं। यह भारतीय कर्मचारियों और मालिकोंके प्रति न्याय नहीं है। इसका असर यह होगा कि भारतीय कर्मचारी और मालिक दोनों ही बरबाद हो जायेंगे।

इससे यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि हवाका रुख किधर है। वर्गीय क्षेत्र विधेयकके विरुद्ध बहुत आपत्ति उठाई गई थी, इसलिए वह अभी स्थगित कर दिया गया है; किन्तु संघ सरकार दूसरे सैकड़ों तरीकोंसे, जिनका उदाहरण इस पत्र-लेखकने दिया है, उसी नीतिपर चल रही है जो इस कानूनके मूलमें निहित है। इसलिए दक्षिण आफ्रिका परिस्थितियाँ जो रूप ले रही हैं उनके प्रति अधिकसे अधिक सजग रहना आवश्यक है।

अप्रैलके आँकड़े

पिछले अप्रैल मासमें खादीने जो प्रगति की है उसके अतिरिक्त आंकड़े नीचे दिये जाते हैं। ये आँकड़े बंगाल और गुजरात प्रान्तोंके हैं। इनसे खादीकी प्रगतिकी अधिक सही जानकारी मिलती है :

उत्पादन बिक्री
बंगाल रु॰ ३४,६७० रु॰ ३४,४७०
गुजरात रु॰ ९,७३५ रु॰ २७,०५२
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योग रु॰ ४४,४०५ रु॰ ५१,५२२
पहले मिली हुई रिपोर्टोंके अनुसार दूसरे प्रान्तोंके उत्पादन और बिक्रयका जोड़:
रु॰ ९२,५४२ रु॰ २०९,०८८
पूर्ण योग रु॰ १,३६,९४७ रु॰ २,६०,६१०
[ अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २७-६-१९२६