पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 31.pdf/४७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मसीह और अन्य धर्मगुरुओंके बीच बहुत बड़ा अन्तर मानती हो। तुम्हारी इस बातको मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ; तुम ऐसा क्यों मानती हो यह भी बतला सकता हूँ और मैं तुम्हारी इस मान्यताकी कद्र कर सकता हूँ। तुम्हें बचपनसे यही बताया जाता रहा है और इसीसे तुम जो कुछ पढ़ती हो उसे पढ़ते समय तुम्हारा यह अवचेतन विश्वास तो बना ही रहता है। मुझे, मेरे बचपनमें किसीने ऐसा भेद करना नहीं सिखाया था, इसलिए मेरे मनमें किसीके प्रति किसी भी तरहका आग्रह नहीं है। मैं ईसा, मुहम्मद, कृष्ण, बुद्ध, जरतुश्त और अन्य धर्मगुरुओंके प्रति, जिनके भी नाम गिनाये जा सकते हैं समान भक्तिभाव रख सकता हूँ। लेकिन यह विषय तर्क करनेका नहीं है; यह तो प्रत्येक व्यक्तिकी आन्तरिक श्रद्धा और भक्तिसे सम्बन्धित बात है। मैं नहीं चाहता कि तुम ईसाके प्रति अपनी एकनिष्ठ भक्ति छोड़ दो। लेकिन मैं चाहूँगा कि [अन्य धर्मगुरुओंके प्रति] निष्ठा रखनेको जो दूसरी स्थिति है, तुम उसे समझो और उसकी कद्र करो।

मेननने रुपये-पैसेकी कठिनाईके बारेमें तुमसे जो कहा है, वह सच है। लेकिन तुम्हारा कहना भी सही है। यदि भगवान तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर देंगे तो तुम यहाँ आ जाओगी।

तुम्हारा,
बापू

माई डियर चाइल्ड तथा नेशनल आर्काइव्ज आफ इंडियामें सुरक्षित अंग्रेजी पत्रकी फोटो-नकलसे।

४४८. पत्र : फ्रैंसिसका स्टेंडेनैथको

आश्रम
साबरमती
१७ सितम्बर, १९२६

प्रिय बहन,

मुझे तुम्हारा पिछला पत्र[१] और हालका पत्र भी मिला। मैं पिछले पत्रकी[२] पहुँच देना चाहता था, परन्तु बहुत काम होनेसे पहुँच दे नहीं पाया। फिर भी स्वामी आनन्द और बादमें मीराबाईकी मार्फत तुमसे सम्पर्क तो रहा ही है। एक तो तुमने ऐसा कुछ किया ही नहीं है कि मैं नाराज हो जाऊँ; फिर मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं आसानीसे नाराज होनेवाला व्यक्ति नहीं हूँ।

मैंने तुम्हारे पत्रोंमें सन्देहकी खासी गहरी छाया देखी। क्या तुमने अपने पत्रोंके रोके अथवा खोले जानेके बारेमें इतमीनान कर लिया है।[३] अगर ऐसा हो ही तो

  1. २३ अगस्त, १९२६ का।
  2. २२ मार्च, १९२६ का।
  3. स्टैंडेनैथने अपनी डाकके यथासमय मिलनेके बारेमें सन्देह और चिन्ता व्यक्त की थी।