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'गीता-शिक्षण'

अर्जुन एक तरफ यह कह रहा है कि आप साकार हैं और दूसरी ओर कहता है कि आप निराकार हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिसका आकार इतना विराट् हो वह निराकार ही है।

आप मुकुटधारी, गदाधारी, चक्रधारी हैं। आप तेजके पुंज हैं और चतुर्दिक प्रकाशवन्त हैं ।

सूर्यनारायणको देखकर ईश्वरके तेजकी झांकी मिलती है, तथापि सूर्य तो उस रूपके आगे किरण मात्र है ।

आप अग्नि और सूर्यकी प्रभावाले हैं। आपका तेज अपरम्पार है और उस तेजके कारण मैं आपकी ओर देख ही नहीं सकता। आप परम अक्षर, परम ज्ञातव्य, इस जगत्में परम आश्रयरूप, शाश्वत् धर्मके रक्षक, अविनाशी सनातन पुरुष हैं।

कल जो प्रचण्ड वर्षा हुई, क्या उसका स्वरूप इस विराट् स्वरूप जैसा ही नहीं था। सूर्य हमसे इतनी दूर रखा गया है। यदि वह पास होता तो हमारा क्या होता ? ऐसी अवस्थामें सहस्रों सूर्योके तेजोंसे युक्त श्रीकृष्ण अर्जुनके पास खड़े हैं तब उसकी स्थितिका क्या पूछना !

आपके आदि, मध्य और अन्त नहीं है। आपकी शक्ति अनन्त है। आप अनेक हाथोंवाले हैं। चन्द्र और सूर्य आपके नेत्र हैं। आपका मुख ज्वलित अग्निके समान है। आपके तेजसे यह समस्त जगत् तप्त हो रहा है। मैं आपके ऐसे स्वरूपको देख रहा हूँ।

आकाश और पृथ्वीके बीचका अन्तर भी आपसे ही व्याप्त है। सर्व दिशाओं में एक आप ही हैं। हे महात्मा, आपका ऐसा अद्भुत और दिव्य रूप देखकर ये तीनों लोक व्यथित हो रहे हैं ।

यह साबरमती भी ईश्वरकी विभूति है। कलके समाचारके अनुसार यदि वर्षा हुई तो क्या हम काँप नहीं उठेंगे ?

इन समस्त देवताओंका संघ आपमें प्रविष्ट हो रहा है। कितने ही तो भयभीत होकर हाथ जोड़कर आपका नाम जप रहे हैं और महर्षियों तथा सिद्धोंके समुदाय कल्याण हो, कल्याण हो' कहकर अनेक स्तोत्रों द्वारा आपकी स्तुति कर रहे हैं।

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रविवार, ५ सितम्बर, १९२६
 

रुद्रादित्या वसवो ये च साध्या

विश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।

गन्धर्वयक्षासुरसिद्ध संघा

वीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ||

रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं

महाबाहो बहुबाहरुपादम् ।

बहूदरं बहुदंष्ट्राकरालं

दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यथितास्तथाहम् ॥ (११, २२-२३)


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