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'गीता-शिक्षण'

सुदुर्दर्शमिदं रूपं वृष्टवानसि यन्मम ।

{{C|'देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकांक्षिणः ॥ (११, ५२)

भगवानने कहा कि तूने मेरा जो रूप देखा, उसका दर्शन दुर्लभ है। देवतागण भी इसे देखनेकी नित्य आकांक्षा करते रहते हैं।

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥ (११,५३)

तूने मेरा जो स्वरूप देखा, उसका दर्शन 'वेद', तप, दान अथवा यज्ञसे नहीं हो सकता ।


भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ।। (११, ५४)

हे परंतप, मैंने तुझे अपना जो स्वरूप दिखाया है, उसका दर्शन तथा वास्तविक रूपसे उसे समझ सकना अनन्य भक्तिसे ही सम्भव है।

भगवानको जानना चाहिए। फिर उसके दर्शन करने चाहिए और अन्तमें उसमें लीन हो जाना चाहिए। ईश्वरसे हमें यह कह सकना चाहिए कि तू मुझे चबा डाल । मुझे इसमें कोई भी आपत्ति नहीं है। मैं तेरा हूँ और तुझमें मिल जाना चाहता हूँ। यदि तू मुझे चबा भी डाले तो उससे मेरी क्या हानि हो सकती है। भगवानका यह कहना कि मैं तुम्हें अपनी दाढ़के नीचे चबा डालूंगा और फेंक दूंगा, यह प्रकट करता है कि तू मुझे भक्तिके माध्यमसे जान सकता है । हम तो अपनी श्रद्धाके बलपर ही उसकी परीक्षामें खरे उतर सकते हैं। उसीकी शक्तिसे सब-कुछ होता है। जीना मरना भी उसीके माध्यमसे है. - यदि ऐसा समझमें आ जाये तब फिर क्या बच रहता है ?

मत्कर्मकृत्मत्परमो मद्भक्तः संगवर्जितः ।

'निवँरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ (११, ५५)

हे पाण्डव, जो सारे कर्म मुझे समर्पित करता है, मेरे प्रति परायण रहता है, मेरा भक्त बनता है, जो आसक्तिरहित है और प्राणि-मात्रके प्रति जिसके मनमें वैर- भाव नहीं है, वह मुझे पा लेता है ।

ग्यारहवें अध्यायका समस्त सार भगवानने अन्तिम श्लोकमें सूचित कर दिया है। मेरे लिए काम करनेवाला, मुझमें परायण रहनेवाला, आसक्तिहीन, किसीके प्रति वैरभाव न रखनेवाला, घोर अपराध करनेवालेके प्रति भी वैरभाव रखे बिना जिसके मुँहसे ऐसा ही उद्गार निकले कि उसका भला हो, वह मुझे पाता है।

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