पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 32.pdf/४४८

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१४२. पत्र : विधानचन्द्र रायको

[पत्रोत्तरका पता : ]
 
आश्रम, साबरमतीl
 
१३ दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय मित्र, इस पत्र के साथ जो पत्र आपको भेज रहा हूँ, वह मेरे पास बहुत समय से ऐसे कुछ कागजातोंमें दबकर, जिनपर मैं उस समय ध्यान नहीं दे पा रहा था, पड़ा रह गया था। अब चूँकि इन बकाया कामोंको निपटानेके लिए मेरे पास कुछ समय बच जाता है, इस पत्रपर मेरी निगाह पड़ी। मैं इसे भेज रहा हूँ ताकि आप इसपर जो कहना चाहते हों, कह सकें ।

`हृदयसे आपका,

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९७५०) की माइक्रोफिल्मसे ।


१४३. पत्र : धीरेनको

[ पत्रोत्तरका पता : ]
 
आश्रम, साबरमती
 
१३ दिसम्बर, १९२६
 

प्रिय धीरेन,

तुम्हारा ९ तारीखका पत्र मेरे पास कुछ समयसे पड़ा रहा है। लेकिन कामका बोझ इतना अधिक रहा है कि मेरा बहुत-सा पत्र-व्यवहार बकाया पड़ा रह गया है। मैं जानता हूँ कि तुम्हारे पत्रका जवाब रुका नहीं रहना चाहिए था। लेकिन यकीन करो कि इधर हालमें मुझे एक क्षणका भी अवकाश नहीं रहता था और मुझे मजबूरन् ऐसे कई काम टालने पड़ते थे जिन्हें में अन्यथा न टालता ।

मुझे उर्मिला देवीसे मालूम हुआ है कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक चल रहा है और तुम अपनेको काममें लगाये रखते हो। मुझे आशा है कि तुमने कताईमें भी काफी प्रगति कर ली होगी। मैं चाहता हूँ कि यदि अनुमति मिल जाये तो तुम वहाँ रुई धुनना भी सीख लो | यदि तुमने धुनाईकी क्रियाको देखा भी हो तो बिना किसी शिक्षकके तुम उसे सीख ले सकते हो ।

अब रहा तुम्हारा प्रश्न । मेरी रायमें किसी बेगुनाह कैदीको भूखा रहने की जरूरत नहीं है; जिसने उसे कैद कर रखा है यदि अपने उस संरक्षकसे वह गुजर-बसरके लिए पैसा स्वीकार करता है तो इससे उसकी प्रतिष्ठा नहीं घटती। लेकिन में यह