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१९७. पत्र : मणिबहन पटेलको

मौनवार [ १९२६ ] '
 

चि० मणि,

तुम्हारा पत्र मिला। मेरे एक उद्गारपर से महादेवने तुम्हारी अनुमतिकी प्रतीक्षा किये बिना मुझे तुम्हारा पत्र दिखा दिया। मुझसे कुछ छिपानेकी महादेवसे कोई आशा न रखे। यह बात उसकी शक्तिके बाहर है। हम कुछ आदतें डालते हैं, फिर उनसे उलटा करना शक्तिके बाहर हो जाता है। अच्छी आदतोंके लिए इस गुणका विकास करना चाहिए । अहिंसाका शुद्ध ध्यान करनेवाला अन्तमें हिंसा करने में असमर्थ हो जाता है। यानी शरीरसे नहीं, विचारसे । विचार ही कार्यका मूल है। विचार गया तो कार्य गया ही समझो।

मेरा वियोग जितना तुम्हें खटकता है, उतना ही मुझे भी खटका हो तो ? और अभी भी खटकता हो तो ? तुमने श्रेयको पसन्द किया, मैंने भी उसीको पसन्द किया । इसीमें तुम्हारा, मेरा और सबका कल्याण है। श्रेयको प्रेय बनाना ही शिक्षाका उद्देश्य होना चाहिए । इसलिए आश्रममें रहना श्रेयस्कर है, ऐसा यदि समझती हो तो उसे प्रिय बनाओ। इसमें अपने मनको या मुझे धोखा न देना । जब तुम्हें आश्रममें रहना अच्छा न लगे तब तुम्हें अन्यत्र रखनेको मैं हमेशा तैयार हूँ, यह समझ लो । मुझे खुलकर लिखना। भले ही मैं उसे न समझू । भले ही उसके उत्तरमें भाषण दूं। बड़ोंके भाषण सहन करना सीखना चाहिए ।

बापूके आशीर्वाद
 

[ गुजरातीसे

बापुना पत्रो: मणिबहेन पटेलने




१. साधन-सूत्रके अनुसार।