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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

निर्वाचक मण्डल:-- इसके सम्बन्धमें मेरा अभी तक वही मत है जो मैंने वर्षों पूर्व दिल्लीमें व्यक्त किया था कि हमें अलग-अलग निर्वाचक मण्डल रखनेकी या स्थानों (सीटों) के संरक्षणकी बातमें साझेदार नहीं बनना चाहिए, और यदि स्थानों का संरक्षण आवश्यक ही हो तो वह आपसी ढंगसे स्वेच्छापूर्वक किया जाना चाहिए । पर जबतक इसके लिए मुसलमान राजी नहीं होते तबतक स्थानोंके संरक्षणसे हमारे इनकार करनेका कोई सवाल ही नहीं है। कांग्रेस इस बातके लिए वचनबद्ध है। इसलिए मेरा विचार है कि हमें केवल यही करना है कि कांग्रेस के प्रस्तावपर दृढ़ रहें और हिन्दुओं और मुसलमानोंसे भी यही आशा करें कि वे भी इसपर अमल करेंगे । यदि सर्वदलीय परिषद कोई अन्य सर्वमान्य उपाय नहीं खोज पाती है, तो हमें कांग्रेसके ही फार्मुलेपर अमल करना चाहिए ।

संविधान :--निजी तौरपर मेरा यह मत है कि हम तबतक संविधान बनानेकी स्थितिमें नहीं हैं, जबतक कि हम उसके लिए शक्ति नहीं पैदा कर लेते। कोई भी संविधान जिसे हम बनाते हैं, इस अर्थमें एक अन्तिम वस्तु होनी चाहिए कि हम इसमें और सुधार कर सकते हैं, लेकिन उससे पीछे एक इंच भी नहीं हटेंगे। लेकिन किसी भी ऐसे संविधानको बना सकनेके लिए कोई उपयुक्त वातावरण दिखाई नहीं देता। इसलिए व्यक्तिगत रूपसे मैं संविधानकी बनिस्बत सब दलोंके बीच एक ऐसी कार्य- व्यवस्थाको तरजीह दूंगा जो सबको मान्य हो । यह कोई संविधान नहीं होगा वरन् उसके मुख्य मुख्य मुद्दे होंगे जैसे हिन्दू-मुस्लिम व्यवस्था, मताधिकार, देशी रियासतों सम्बन्धी नीति आदि । अगर हमें इस व्यवस्थाको लोकप्रिय बनाना है तो मैं चाहूँगा कि पूर्ण मद्य-निषेध और विदेशी कपड़ेका बहिष्कार, इसके लिए एक अनिवार्य शर्त हो । निःसन्देह हमें सभी धर्मों और तथाकथित अस्पृश्योंको समान व्यवहारकी गारन्टी देनी चाहिये। जिन बातोंके सम्बन्धमें समझौता होना चाहिये उनकी मैंने सांगोपांग सूची न देकर उदाहरणके लिए कुछ चीजें दे दी हैं। मैं समझता हूँ कि यदि हम इस प्रकारके सामान्य समझौतेका अतिक्रमण करते हैं, तो हम गलती करेंगे। मुझे आशा है कि परिषद बिना निर्णय किए समाप्त नहीं होगी, और यदि वह बिना कुछ निर्णय किए समाप्त भी हो जाती है, तो कार्य समितिको चाहिए कि वह मामलेको अपने हाथमें ले ले और कांग्रेसकी ओरसे उन सभी मसलोंके सम्बन्धमें जिनके लिए परिषद बुलाई गई है, अपना निर्देशात्मक वक्तव्य जारी करे।

शक्तिका प्रश्न :--मेरे विचारसे उपर्युक्त दोनों बातोंकी बनिस्बत शक्तिका प्रश्न अधिक आवश्यक है। जबतक हम स्वयं अपने भीतर शक्ति पैदा नहीं कर लेते, तबतक हमारी स्थिति भिखारियोंसे बेहतर नहीं हो सकती। मैं हमेशा इसी एक प्रश्नपर विचार करता रहता हूँ और यदि हो सके तो मिलोंकी मददसे अथवा यदि आवश्यक हो तो उनकी मददके बिना भी विदेशी कपड़ेके बहिष्कारके बारेमें सोचता रहता हूँ। इसके अलावा मैं और कुछ नहीं सोच सकता। यदि हम इसके पक्षमें पर्याप्त जनमत बना सकते हैं तो मेरा यह विश्वास है कि इसे एक समुचित समयमें सम्पन्न किया जा सकता है। यदि मुझे अपने तरीकेसे काम करनेकी पूरी छूट मिलती तो मैं इसपर पूरे