ब्रिटिश भारतीयों अथवा एशियाइयोंके लिए विशेष रूपसे कानून बनानेपर जोर दिया गया है। उसमें अनिवार्य पृथक्करणपर भी जोर दिया गया है और ये दोनों बातें ब्रिटिश भारतीयोंको बार-बार दिये गये आश्वासनोंके विरुद्ध है। मैं अधिकतम आदरके साथ कहना चाहूँगा कि सर आर्थर लालीने नेटालमें जो कुछ देखा उससे वे पथभ्रान्त हो गये हैं। नेटालका उदाहरण देकर कहा गया है कि ट्रान्सवाल भी ऐसा ही हो जायेगा; परन्तु नेटालके जिम्मेदार राजनीतिज्ञ हमेशा मानते रहे हैं कि भारतीयोंके कारण ही नेटाल सँभला रहा। सर जेम्स हलेटने वतनी मामलोंके आयोग (नेटिव अफेयर्स कमिशन) के सामने कहा था कि व्यापारीके रूपमें भी भारतीय अच्छा नागरिक है और वह थोकफरोश गोरे व्यापारियों और वतनी लोगोंमें अच्छे बिचौलियेका काम करता है। सर आर्थर लालीने यहाँ तक कहा था कि ब्रिटिश भारतीयोंके साथ यदि कोई वादे किये भी गये होंगे तो वे उन हालातसे अनजान होनेके कारण कर दिये गये होंगे, जो कि आज मौजूद हैं; और इसलिए उन्हें पूरा करनेकी अपेक्षा उन्हें तोड़ देना ही अधिक बड़ा कर्तव्य होगा। मैं अत्यन्त आदरके साथ निवेदन करनेका साहस करता हूँ कि वादोंके सम्बन्धमें ऐसा सोचना गलत है। यद्यपि हम महारानीकी १८५८ की घोषणापर महान प्रतिज्ञापत्र (मैग्ना कार्टा) के रूपमें विश्वास करते हैं, परन्तु इस समय हम पचास बरस पहले किये हुए वादोंका जिक्र नहीं कर रहे है। उस घोषणाको एकाधिक बार पुष्ट किया जा चुका है। वाइसरायपर वाइसराय दृढ़तापूर्वक कहते रहे हैं कि इस प्रतिज्ञाका पालन किया जायेगा। औपनिवेशिक प्रधान मंत्रियोंके सम्मेलनमें श्री चेम्बरलेनने इसी सिद्धान्तका प्रतिपादन किया था और प्रधान मंत्रियोंको बतला दिया था कि विशेषतः केवल ब्रिटिश भारतीयोंको प्रभावित करनेवाले किसी कानूनको स्वर्गीया सम्राज्ञीकी सरकार सहन नहीं करेगी, ऐसा कानून सम्राटके करोड़ों राजभक्त प्रजाजनोंको सर्वथा अनावश्यक रूपसे अपमानित करनेवाला होगा, और इसलिए जो भी कानून पास किया जाये वह सर्व-सामान्य रूपका होना चाहिए। इसी कारणसे आस्ट्रेलियाके प्रथम प्रवासी-प्रतिबन्धक अधिनियमपर निषेधाधिकारका प्रयोग किया गया था। प्रथम नेटाल मताधिकार अधिनियम (नेटाल फ्रैंचाइज़ ऐक्ट) भी इसी कारण निषिद्ध ठहरा दिया गया था, और इसी कारण नेटालके उपनिवेशको, केवल एशियाइयोंपर लागू होनेवाला एक विधेयक पेश करनेके बाद, उसका मसविदा फिर तैयार करना पड़ा था। ये सब मामले पुराने जमानेके नहीं, हालके बरसोंके हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस सबको बदलनेके लिए आज कोई नये हालात सामने आ गये है। युद्धसे ठीक पहले भी मन्त्रियोंने इस आशयकी घोषणाएं की थीं कि युद्धका एक कारण ब्रिटिश भारतीयोंके अधिकारोंकी रक्षा करना भी है। अन्तिम बात यह है, परन्तु इसका महत्त्व कुछ कम नहीं है कि स्वयं परमश्रेष्ठने भी युद्ध छिड़नेसे ठीक पहले यही विचार प्रकट किया था। इसलिए यद्यपि हमारा विनम्र मत यह है कि सर आर्थर लालीने इस प्रश्नपर जिस प्रकार विचार किया वह अति अन्यायपूर्ण और ब्रिटिश परम्पराओंसे असंगत है, तथापि यह प्रमाणित करनेके लिए कि हम गोरे उपनिवेशियों के साथ सहयोग करना चाहते हैं, हमने पहले ऐसा कोई कानून न होते हुए भी यह सुझाव रखा है कि अब एक प्रवासी अधिनियम केप या नेटालके अधिनियमोंके आधारपर बना दिया जाये; परन्तु उसमें ये दो अपवाद रखे जायें कि एक तो शिक्षणकी कसौटीमें प्रधान-प्रधान भारतीय भाषाओंको भी सम्मिलित कर लिया जाये और, दूसरे, पहलेसे जमे हुए ब्रिटिश भारतीय व्यापारियोंको यह सहूलियत दी जाये कि वे जिन व्यक्तियोंको अपना व्यापार चलानेके लिए आवश्यक समझें उन्हें अस्थायी रूपसे भारतसे बुला सकें। इससे वह भय एकदम दूर हो जायेगा जिसे कि एशियाई हमलेका नाम दिया गया है।
१.देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ४८८।