३२१. जवाब : मुस्लिम युवक संघको
जब यह विवरण[१] मुझे मिला तब में फीनिक्समें था। मंत्रीकी माँग थी कि इसे अक्षरश: छापा जाये, इसलिए मैंने इसे समूचा छापनेकी अनुमति दी है। लेकिन मुझे अपने नौजवान भाइयोंसे दो बातें कहनेकी जरूरत मालूम होती है। विवरण हमेशा ऐसा होना चाहिए, जिससे दूसरोंको सीखनेको मिले। मैं उक्त विवरणमें ऐसा कुछ नहीं देखता।
मेरे बारेमें जो टीका की गई है उसे मैं स्वीकार करता हूँ और उसे छापनेमें मुझे जरा भी हिचकिचाहट नहीं है। मैंने ऐसा कहीं नहीं कहा कि भंगी आदिमें से लोग मुसलमान बने हैं और न ऐसा मुझसे कहा जा सकता है। मैंने गोरोंकी भावनाका विरोध करनेके बदले उनका पक्ष लिया था। फिर भी मैंने जो कुछ कहा उसमें गलती हुई हो, तो उसे क्षमा करनेके लिए मैं अपने भाइयोंसे कह चुका हूँ।[२]
मेरे या इस पत्रके विरुद्ध जो भी पत्र आये हैं, सो सब छापनेकी इजाजत मैंने दी है। जो पत्र मेरे पक्षमें हैं, मैंने उन्हें छापनेकी मनाही कर दी थी। फिर भी मुझे कहना चाहिए कि यदि आगे भी कौमके अन्दर फूट फैलानेवाले लेख आये, तो वे नहीं छापे जायेंगे। अगर दूसरा गुजराती पत्र या दूसरे छापेखाने शुरू हों, तो इससे मुझे हमेशा खुशी होगी। इस छापेखानेका एकमात्र हेतु लोक-सेवा करना है। वैसी सेवा करनेवाले दूसरे प्रतिस्पर्धी खड़े हों, तो इस छापेखानेके लोगोंके लिए यह गर्वकी बात होगी।
हिन्दू श्मशान-कोषके पैसोंकी जो पहुँच छपी है, उसकी छपाई दी गई है। यही चीज डामेल मदरसेकी सूचीके बारेमें हुई है। यह पत्र ऐसी मुसीबतोंके बीच निकल रहा है कि सब भारतीयोंको इसकी पूरी मदद करनी चाहिए। इसकी जगह इतनी अनमोल है कि इसमें जो हिस्सा मुफ्त छापा जाता है, वह लोगोंको शिक्षा और ज्ञान देनेवाला होना चाहिए।
संक्षेपमें, अपने नौजवान भाइयोंसे मुझे यही विनती करती है कि उन्हें सार्वजनिक काममें उत्साह दिखाना चाहिए। यह पत्र समूची कौमकी सेवा करता है। यदि वे इसकी मदद करेंगे, तो ऐसा माना जायेगा कि उन्होंने अपना फर्ज अदा किया; और उससे पत्रको ताकत मिलेगी, और वह ताकत फिरसे कौमके ही काम आयेगी।
आशा है, मेरे भाई मेरे इस लेखका बुरा न मानेंगे, बल्कि इसका सच्चा अर्थ करेंगे। इसे लिखनेमें भी मेरा हेतु सेवा करना ही है।
मो° क° गाँधी
इंडियन ओपिनियन, २८-४-१९०६
- ↑ यह डर्बनके मुस्लिम युवक संघकी अप्रैल १६ और २४ को हुई दो सभाओं की रिपोर्ट। इन सभाओं में कुछ वक्ताओंने शिकायत की थी कि इंडियन ओपिनियन में मुसलमानोंके कामके लेख, उनके संघकी कार्यवाहियों, चन्देकी सूचियों, अखवारोंको प्रेषित पत्रों आदिको पर्याप्त महत्त्व नहीं दिया जाता। उनका कहना था कि अगर हमारा अपना पत्र होता तो ऐसा न होता। इस आलोचनाके उत्तरमें गांधीजीने यह वक्तव्य दिया।
- ↑ देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ४९०।
- ↑ स्पष्टतः यह तारीख गलत है, क्योंकि यह पत्र २८-४-१९०६ के अंकमें प्रकाशित हुआ था।