आचरण की सभ्यता रखने वाले को तर्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती । शब्द और वाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं। ये आचरण की गुप्त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते । वहाँ इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । वेद इस देश के रहनेवालों के विश्वासानुसार ब्रह्म-वाणी हैं, परन्तु इतना काल व्यतीत हो जाने पर भी अाज तक वे समस्त जगत् की भिन्न-भिन्न जातियों को संस्कृत भाषा न बुला सके न समझा सके न सिखा सके । यह बात हो कैसे ? ईश्वर तो सदा मौन है। ईश्वरीय मौन शब्द औरभाषा का विषय नहीं ! वह केवल आचरण के कान में गुरु-मन्त्र फूं क सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है। किसी का आचरण वायु के झोंके से हिल जाय तो हिल जाय, परन्तु साहित्य और शब्द की गोलन्दाजी और आँधी से उसके सिर के एक बाल तक का बाँका न होना एक साधारण बात है । पुष्प की कोमल पँखड़ी के स्पर्श से किसी को रोमाञ्च हो जाय; जल की शीत- लता से क्रोध और विषय-वासना शांत हो जायँ; बर्फ के दर्शन से पवित्रता या जाय; सूर्य की ज्योति से नेत्र भाषा का व्याख्यान-चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्यों न हो-बनारस में पंडितों के लिये रामरोला ही है। इसी तरह न्याय और व्याकरण की बारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गई चर्चायें और शास्त्रार्थ संस्कृत-ज्ञान-हीन पुरुषों के लिये स्टीम इंजिन के फप-फप् शब्द से अधिक अर्थ नहीं रखते । यदि आप कहें व्याख्यानों द्वारा, उपदेशों द्वारा, धर्म चर्चा द्वारा कितने ही पुरुपों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभाव शब्द का नहीं पड़ता-प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है । साधारण उपदेश तो हर गिरजे, हर मन्दिर और हर मसजिद में होते हैं, परन्तु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का खुल जायँ- -परन्तु अंगरेजी . १२०
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