म्या २] सामयिक पधों की कार्य प्रणाली पर दृष्टिपात । २०३ 1.घुटकले प्रादि सयंदा निकाला करते हैं। यही अनुचित नहीं, क्योंकि गले मादि देशो में मी यहाँ अगला के पत्रों का भी है। इसी कारण मराठी के पर किसी न किसी दल का पक्ष अयश्य ही प्रहा Pा बंगला पोलने वालों की संख्या कम होने पर करते हैं। चाहे पार जगह यह यास हानिकारफ न उक्त भाषायों के पों की ग्राहक संख्या दिन्दी हो, परन्तु भारत के लिप सो यह प्रयदय दी हानिकर -पत्रों से अधिक है। प्रतपय हमारे सम्पादको है। कारण यह कि ऐसा करने से प्रापस में माह- सा लेनको को भी उक्त भाषामों के पत्रों भाय की उत्पत्ति पात कम होती है. पार जा मेद- - लेखको तथा समादको का अनुकरण करना माघ हमारी प्रयनमि का मुख्य कारण है उसकी हिए । साहित्य के कुछ ही प्रेश की पूर्ति कुछ न कुछ अयश्य ही पृषि होती है। प्रतएय स्ना पार रने गिने मनुष्यों को ही पिदान पनामा हमारी राय में खण्डन-मण्डन पाली तथा प्रत्य-धर्म- तारा उद्देश न होना चाहिए । हमें याचनाभियाँच सम्पची पुस्तकों की समालोचना न होनी चाहिए । हाकर यथासाभ्य प्रत्येक देशमन्यु को विधा-प्रेमी किसी धर्मसंस्थापफ, सम्वासक प्रथया सहायक माना चाहिए । यह तभी हो सकता है जब हमारे का जीवनचरित प्रकाशित करते समय उसके मनीय समादक सर्वसाधारण के पढ्न पाम्य धार्मिक विचार तथा धार्मिक जीवन पर भामेप भी मारमक लेख प्रकाशित करें। न करमा घाहिए । क्योंकि ऐसा करने से लाम के . जिस भाषा का साहित्य प्रमी उत्पति की मार- षदले हाल ही अधिक होती है। मक अवस्था में है उस मापा के पत्रों के सम्पादको न मालूम हमारे अधिकांश भाई गजनसिक पाते। का कार्य में यदि कठिनता उठानी पड़े तो कोई मे पयों दूर रहते हैं। कुछ प्रहरी लोगों में अपने बापचय की बात नहीं। क्योंकि प्रारम्म में समी कुत्सित कर्मों से समाज में स्खलबली अवश्य राय कार्यो में यह यात होती है। इसमें कोई सन्देह नहीं दी है। पर उन दस पांच मनुप्यो पार नवयुपको के के सम्पादकी के सिर पड़ी ज़िम्मेदारी रहती है। विरस मस्तिष्क के काम की सभी निन्दा कर रहे रफ मनुष्य के लिए सबको प्रसन्न रखना प्रसाध्य है। है।तो देश के शत्रु हैं। उनके कारण हमें न्यायानु- क्योंकि संसार में प्रत्येक मनुप्य की प्रकृति प्रायः मोदित राजनैतिक चर्चा करमा म छोड़ देना चाहिए। मिप्त होती है । तथापि यथासम्भय सप को प्रसन्न कोई मी देश उस समय तक उन्नति नहीं कर रसमा चाहिए। सकता मिस समय तक कि राजनैतिक सुधार उसमें . हमारे अनेक पत्रों का यह नियम है कि ये धर्म- न है । पाप पाई संसार भर का इतिहास देख सम्बन्धी सेखों को स्थाम महीं देते। परन्तु उन दालें, कोई भी देश ऐसा न मिलेगा जिसने पिना पत्रों के योग्य सम्पादक कमी कमी प्रपना रुम उस राजनैतिक मुपार किये अपनी पास्तविक उन्नति की धर्म विशेष पर, जिसके किये स्वयं अनुयायी है. हो। उदाहरण के लिए जापाम, इंग: इटली पादि स्पष्ट रूप से पतला ही देते हैं। कोई कोई पत्र तो, को देखिए । रस, फारिस, पीन प्रादि फ्यो अभी तक जिनका नियम सर्वसाधारण से सम्पन्ध रहनने पाले अवनति के गड़े में पड़े हुए है। केयल राजनैतिक उपयोगी लैस लिस्त्रमा है. ताल ठोक कर अपने धर्म सुपार म होने से.ही। इससे पाठक पियार कर का समर्थन करते है।सायंश यह कि धर्म से सम्बन्ध सकते है कि यह विपय किसने महास्य का है। मरपने पाले पत्र भी, किसी न किसी रूप में, अपने कुछ विद्वानों का कथन है कि भारतीयों को प्रमी धार्मिक पिधार प्रकट ही कर देते हैं । यह सर्वथा सामाजिक, धार्मिक तथा शिक्षा-सम्मम्पी सुपार की
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