पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/२९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संस्या ] योगियर भीस्वामी सम्मानाथजी । - -- -- स्वामीजी ने संवत् १९६२ में यामी वाटकों को श्रीमान् राजा साहव बलदेवसिंहसी पूनस, श्रीमान, शिम्य बना कर उन्हें मालामाथ पौर नाय माम राजकुमार टीका हरिसिंहसी कारर इम चीफ, से यिभूपित किया। सुनते हैं, किसी कारण से दीवान बहादुर दीपाम अमरनाथजी, चीफ़ मैजिस्ट्रेट मोलानाथ पाश्रम से चला गया । प्रसपष मष इस्पादि हुए। प्रांपकी सम्पत्ति का उच्चाधिकारी एक मात्र इन्द्र- __ योगाश्रम तथा गोशाला प्रावि का काम अपूर्ण दी नाथ ही है। यह प्रय राजमानी जम्मू में सामायिक था कि स्वामीसी ने सर्वसाधारण से कहा कि मुझे शिक्षा के अतिरिक्त संस्मत भी पढ़ता है। पालक अब इस देश को छोड़ कर महाराम मयपाल की होनहार प्रतीत होता है। शरण में जाना है। स्वामीशी के इन पचनों की ___ स्वामीजी ने कई वर्षों से अपनी भ्रमण-क्रिया प्रयण करके सोग हो पो रह गये । पूर्वोक पाक्य को मन्द कर दिया था। भाप जम्मू तक भी न जाते के गए माय को किसी मे म समझा । संस्कृत में थे, यद्यपि यह भापके प्रथम से फेषठ १६ मील देश-माम शरीर का भी है, पार मय-नाम राज- है। प्रतएम कुछ प्रदूरदशी स्यामीजी के विषय में नीति या मर्यादा का है। ओ मर्यादा का पालन कुधरायें करने लगे थे। पर यह उमकी नादानी करता है पही मयपाल है। मनुप्य में सर्वदा स्मलन थी। योगियों का प्रवतार मायाजाल के छेवन के रहता है। प्रता मनुष्य को भयपाल कहना प्रसस्त लिए होता है। उसमें फंसने के लिए महीं। ऐसे है। मयपास माम सचिवामन्द परमेश्यर का है, लोगों की मादानी का प्रमाण भी मिल गया। जिसकी मर्यादा सर्वदा अचल है। स्वामीजी के स्थामीजी ने संवत् १८७१ में रामधामी अम्बू की कयन का भावार्य यह था कि इस पाचमासिक शरीर यात्रा की। स्वामीजी मे पहां घेद भगवान के मन्दिर को और कर सचिदानन्द परमेश्वर की शरण में की स्थापना के साथ ही साय योगाथम, गोशाळा, जाना है। अर्थात् मेरो मृत्यु समीप है। धर्मशाळा पर एक पृहत् पुस्तकालय स्थापित करना चाहा । फस यह हुआ कि धीमम्महायजा स्वामीसी जम्मू से इश्वर को लौट गये । यहाँ धिराज काश्मीर-जम्मू मे ३० वी भूमि वेदमन्दिर अपने तालाब में खूप जलमीड़ा की ।की पत्तियों की स्थापना के लिए दे दी। गोशाला के लिए भी ने मापको इतना खाम करने से रोका मी । परन्तु एक मध्य जाल बता दिया । इसके अतिरिक्त भाप न रुके। पाप सर्वदा यही कहते रहे-अम इस एक प्रयी रफम के दान का भी मामसिक समस्प देश को आड़ कर महाराज मयपाल की शरण में किया । यह रकम पूर्वोक संस्थानों को सदेय जाना है। एक राज स्थामीजी के सिर में कुछ चलाने के लिए थी। नगर से मी १२ सहस रुपया साधारण घेदना हुई। परन्तु प्रापकी मुसमुद्रा पूर्य- एकत्र हो गया। प्रमी का उपपदाधिकारियों तथा थत् मफुलित ही रही। किसी को यह सात न मा राजमहिलाओं का दान वाकी था कि स्वामीसी मे कि पापकी जीयालीसा पूर्ण होने पाली है। पड़ी शीघ्रता से घेव-मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर स्वामीसी सर्पदा उपाकाल से दिन के १० बजे तक दिया। पड़ी धूमधाम से पेदमगयान् के मन्दिर की अपनी भैषगुफा में समाधिस्थ रहते थे। संषत् प्रतिष्ठर हो गई। उसकी रक्षा के मिमित्त एक कमिटी १९७२, मापाद शुल चतुर्दशी रपियार को, प्रात:- मी बन गई । उस कमिटी के सदस्यों में श्रीमन्महा- काल ६ यझे ही प्रापने इन्द्रनाथ को पायाजवी। पम सर प्रतापसिंहनी, मी० सी० पस० पाई, इन्द्रनाथ दाह कर गुफा के भीतर देखता है तो