पृष्ठ:सरस्वती १६.djvu/३०२

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संक्या ३ ] वर्ष स्पेन्सर की प्रडेय-मीसांसा। की योग्यता के अनुरूप ही राज्य-प्रपन्ध होता है। उसे म कोई समझेगा पार न कोई उसका पादर ही जैसे मनुष्य पैसा ही राज्य-अयम्य । धर्म का भी करेगा। जो बात सस्य मालूम हो उसे मिार होकर यही हाल है। सनातन राज्य-प्रकध-सम्बन्धी विचार कह देना चाहिए । नये विचार पाला मनुप्य भी असे उपयोगी होते है जैसे ही सनातन धर्म-सम्बन्धी तो संसार का ही एक अंश है। यदि प्रचलित विश्वास भी उपयोगी होते हैं। विश्वास को हर रखना प्रथया उन्हों से अपने को .इस विषय में मनुप्यों की तीन बातो का ध्यान बाप रसना संसार का नियम होता तो उस मनुष्य रखना चाहिए- को नया विचार समता क्यों ? इससे सिर है कि (१) समी धर्म-मर्यादायें सस्य के प्राधार पर संसार मे पिचारों की उन्नति शनैः शमः होती ' है, फिर में चाहे कितनी ही मलिन क्यों न हो पार यह इसी तरह होती है। जहां किसी मे नया गई । विचार निकाला तहाँ उसने उसे संसार में प्रकट (२) सत्याधार पाने धर्म यदि किसी प्रादर्श किया। उस पियार को पार लोग भी धीरे धोरे पमा से ठीक महीं सो सर्वसाधारण प्रमाण से प्रहम करने लगते हैं। इस तरह उसका प्रचार प्रषश्य ही ठीक है। करता है। मामसिक उप्रति का यही मार्ग है। (३) अनेक धार्मिक विश्वास सोसारिक स्थिति सव का सारांश । के प्रेश ई-प्रधान जैसे संसार की पार पस्तुयें है से ही पे विश्वास भी है। संसार की स्थिति के संसार में कोई भी वस्तु या बात ऐसी नहीं साथ ही इन' विश्ासी की भी स्थिति है। जैसे जिसमें सस्य का अंश म हो । जितमे मत है सभी में संसार की अन्य यस्तुयें किसी न किसी रूप में सत्य का पेश है । जो यह कहते हैं कि मत-मतान्तर अवश्य रहेंगी-बाहे कितना ही परिवर्तन क्यों न मूठे हैं पार पणिरतो प्रथषा पुसारिपी की मानसिक हा, ये सर्वथा ना को म प्राप्त होगी पैसे ही ये कल्पना के फल ये भूल करते हैं। जो यह कहते विश्वास भी किसी न किसी रूप में प्रयश्य है कि मिशाम-शाख मुठा है और धर्म का विरोधी है प्ने पड़ेंगे। घे मी भूल करते हैं। सत्य का अंश दोनों ही में है। ___ यदि इन बातों पर ध्यान दिया जाय तो धर्म- हमके व्यापक नियमों पर ध्यान देने से मालूम होगा पिपयक प्रसहमशीलता म सत्पन होगी, ग्रार अपने कि दोनों ही एक है। इसमें परस्पर विरोध नहीं । सिदाम्त के मन में विपक्षी की पाते सम फर इन दोनों में एकता सिर करने के लिए इस पाठ फी होगो को सोम न होगा। इससे यह न समझना खोम की भाषश्यकता है कि इनके मूलाधार फ्या माहिए कि किसी नये विचार को मन में स्थान ही न है-अर्थात् धम्म पार विज्ञान के अन्तिम विचार देना चाहिए । संसार में सदा ही पस्तुों का परि- क्या है। अब यह मालूम हो जायगा तप इन दोनों षितम होता रहता है। साथ ही साथ विचारशक्ति भी का मेळ मी सिम हा आयगा । धर्म का प्राधार जिन बढ़ती जाती है । सर्वसाधारण की हरि से सनातन विचारों पर पे ये है- भनिमार ठीक है। परन्तु ममे विचारों का तिरस्कार (१) संसार की उत्पत्ति कैसे हुई। रिमा भी मर्माता है । नये विचार प्रकट करने पाली (२) संसार है फ्या! यह म स्रयास करना चाहिए कि हमारा यिवार (३) उसका कोई प्रादि-कारण है या नहीं। यदि तसार के प्रचलित विचारों से भागे है। इस लिए है तो उसके क्या सक्षण ! -