पीछे हटना प्रारम्भ कर दिया। दो-तीन मील तक पीछा करने पर भी जब शत्रु भागता ही चला गया, तव यवन-सेनापति ने आक्रमण रोककर सेना की श्रृंखला बना फिर कूच बोल दिया। परन्तु यह देखते ही तानाजी फिर लौटकर यवन-सेना का पीछा करने लगे । यवन-सेनापति ने यह देखा । उसने सोचा, डाकू घात लगाने की चिन्ता में हैं । उसने क्रुद्ध होकर फिर एक वार लौटकर धावा किया, पर तानाजी फिर लौटकर भाग चले। संध्या काल हो गया । यवन-सेनापति ने खीजकर कहा-- "ये पहाड़ी चूहे न लड़ते हैं, और न भागते हैं, अवश्य अन्य सेना की प्रतीक्षा में हैं। साथ ही कम भी हैं।" अतः उसने व्यवस्था की कि तीन हजार सेना के साथ खजाना आगे बढ़े, और दो हजार सेना इन डाकुओं को यहाँ रोके रहे । इस व्यवस्था से आधी सेना के साथ खजाना आगे बढ़ गया। शेष दो हजार सैनिकों ने वेग से तानाजी पर आक्रमण किया । तानाजी बड़ी फुर्ती से पीछे हटने लगे। धीरे-धीरे अन्धकार हो गया । यवन-दल लौट गया । परन्तु चतुर तानाजी समझ गए कि खजाना आगे बढ़ गया है । वह उपाय सोचने लगे । एक सिपाही ने घोड़े से उतर कर तानाजी की रकाब पकड़ी । तानाजी ने पूछा-"क्या कहते हो ?" "आप जो सोच रहे हैं, उसका उपाय मैं जानता हूँ।" "क्या उपाय है ?" "यहाँ से बीस कोस पर एक गाँव है ?" "फिर ?" "वहाँ मेरे बहुत सम्बन्धी हैं।" "अच्छा।" "उस गांव के पास एक घाटी है, जिसके दोनों ओर दुरूह, ऊँचे पर्वत हैं, और वीच में सिर्फ दो सवारों के गुजरने योग्य जगह है । यह घाटी लगभग पौन मील लम्बी है।" ३४