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पृष्ठ:सह्याद्रि की चट्टानें.djvu/५९

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मुझसे आकर मिलो। मैं तुम्हें माफी दिलाऊँगा। और वे किले जो कोंकरण में अब तुम्हारे कब्जे में हैं, तुम्हें दिलाऊँगा। यदि तुम दरबार में जानोगे तो तुम्हारा बड़ा स्वागत होगा।" शिवाजी ने भरे दरवार में अफजलखां के दूत कृष्णाजी भास्कर का भारी स्वागत और आवभगत की और बड़ी नम्रता और आधीनता प्रकट की। यह भी प्रकट किया कि वह बहुत डर गए हैं। उन्होंने उसे महल में ही आदरपूर्वक ठहराया। भास्कर पण्डित अपने कार्य में सफल मनोरथ हो वहुत प्रसन्न हुए। २३ ब्राह्मण और क्षत्रिय आधीरात बीत चुकी थी । कृष्णाजी भास्कर सुख की नींद सो रहे ये। एकाएक खटका सुनकर उनकी आंख खुली। उन्होंने देखा-नंगी तलवार हाथ में लिए शिवाजी सामने खड़े हैं। कृष्णजी भयभीत होकर शिवाजी की ओर ताकते रहे । उनके मुंह मे बात न फूटी। शिवाजी ने कहा-"आपके सोने में विघ्न पड़ा न? पर आवश्यकता ही ऐसी आ पड़ी।" "लेकिन, आपका अभिप्राय क्या है ?" "अभी बताता है । लेकिन आप शत्रु के दूत हैं, मेरे-आपके बीच यह तलवार रहनी चाहिए।" इतना कहकर उन्होंने तलवार आगे बढ़ाकर कृष्णजी के पैरों के पास जमीन पर रख दी। कृष्णजी कुछ आश्वस्त होकर बोले-"आप मुझे शत्रु क्यों समझते हैं ?" "मैं यही जानना चाहता हूँ कि आपको क्या समझू । कहिए, मैं कौन हूँ और आप कौन हैं ?" "यह भी कुछ पूछने की बात है। मैं हूँ वाई का कुलकर्णी ५७