पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/१

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साम्प्रदायिकता जिज्ञासा साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलते शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भांति जो सिंह की खाल ओढ़ कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़ कर आती है। हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को । दोनों ही अभी तक अपनी- अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं । यह भूल गए हैं कि अब न कहीं मुस्लिम संस्कृति है, न कहीं हिन्दू संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, अब संसार में केवल एक संस्कृति है और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई संबंध नहीं । आर्य संस्कृति है, ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, तो क्या मुसलमान कब्रपूजक और स्थानपूजक नहीं है, ताजिए को शर्बत और शीरीनी कौन चढ़ाता है, मस्जिद को खुदा का घर कौन समझता है ? अगर मुसलमानों में एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो बड़े-से-बड़े पैगम्बरों के सामने सिर झुकाना भी कुफ्र समझता है, तो हिन्दुओं में भी एक सम्प्रदाय ऐसा है जो देवताओं को पत्थर के टुकड़े और नदियों को पानी की धारा और धर्मग्रन्थों को गपोड़े समझता है। यहां तो हमें दोनों संस्कृतियों में कोई अन्तर नहीं दीखता । - प्रेमचंद स्वतन्त्रता के बाद भी साम्प्रदायिकता हमेशा उच्च-वर्ग के हितों की सेवा करने का औजार रही है। समाज के सामान्य लोगों के दुख-दर्दों से साम्प्रदायिकता का कोई लेना-देना नहीं है। अपने ही सम्प्रदाय के बीच अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण, अंध - विश्वास, बेकारी, भ्रूण हत्या, स्त्री-विरोधी पुरातन मानसिकता, जाति की अमानवीय प्रथा के प्रति कभी आवाज नहीं उठाई जाती क्योंकि साम्प्रदायिक दृष्टि में ये समस्याएं ही नहीं हैं। साम्प्रदायिकता के लिए गरीबी समस्या नहीं है बल्कि गरीब समस्या हैं, उनकी मैनेजमेंट करना और उनके रोष को उन्हीं के हितों के खिलाफ प्रयोग करना उसकी चिंता है, और निहित स्वार्थ इस कुत्सित कार्य को सिद्ध करने के लिए साम्प्रदायिकता के विषैले नाग को अपने पिटारे से निकालते रहते हैं। - किताब से