तीसरे प्रकार का साम्राज्यवाद है, उसके उपनिवेश बहुत थोड़े हैं और विदेशों में लगी हुई जर्मन पूंजी यूरोप तथा अमरीका के बीच बहुत संतुलित ढंग से बंटी हुई है।
पूंजी का निर्यात उन देशों में, जहां वह भेजी जाती है, पूंजीवाद के विकास पर प्रभाव डालता है तथा उसकी रफ़्तार को बहुत तेज़ कर देता है। इसलिए, पूंजी के निर्यात से पूंजी का निर्यात करनेवाले देशों में विकास को कुछ हद तक रोक देने की प्रवृत्ति तो हो सकती है, पर वह इस काम को सारे संसार में पूंजीवाद के और अधिक विकास को बढ़ाकर तथा गहरा बनाकर ही पूरा कर सकता है।
जो देश पूंजी का निर्यात करते हैं वे लगभग हमेशा ही कुछ ऐसी "सुविधाएं" प्राप्त कर लेने में सफल होते हैं, जिनके स्वरूप से वित्तीय पूंजी तथा इजारेदारी के युग की विशिष्टता पर प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, बर्लिन की «Die Bank» नामक समीक्षा-पत्रिका के अक्तूबर १९१३ के अंक में निम्नलिखित बात छपी थी:
"इधर कुछ दिनों से पूंजी के अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक ऐसा हास्यप्रधान नाटक हो रहा है जो ऐरिस्टोफ़ेनीज़ जैसे किसी नाटककार की लेखनी को शोभा देता। स्पेन से लेकर बालकन राज्यों तक, रूस से लेकर अर्जेन्टाइना , ब्राज़ील तथा चीन तक, बहुत-से देश बड़ी पूंजी के बाजार में खुलेआम या चोरी-छुपे आते हैं और क़र्ज़ मांगते हैं , कभी- कभी तो वे क़र्ज़ के लिए धरना देकर बैठ जाते हैं। इस समय पैसे के बाजार की हालत बहुत अच्छी नहीं है और राजनीतिक परिस्थिति भी बहुत आशाजनक नहीं है। परन्तु पैसे का एक भी बाज़ार ऐसा नहीं जो विदेशों को ऋण देने से इंकार कर सके क्योंकि वह डरता है कि कहीं उसका पड़ोसी उससे आगे न निकल जाये, ऋण देने पर राजी न हो जाये और इस प्रकार ऋण लेनेवाले से इसके बदले में कोई काम न करवा ले। इन अन्तर्राष्ट्रीय सौदेबाजियों में ऋण देनेवाला लगभग
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