पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१०५

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गिरजापीत भूषन चंद जिन देषे सो तारे नाहीं देषत है सुरतरु कलप वृक्ष जाकें होत है सो भूम तरु नाहीं चाहत अवर सुगम है यामें सपतनी की अस्तुत अनुचित भाव सो श्रिंगार ताते उर्जस ॥ १११ ॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने इस पद के अर्थ को दूसरे स्थान में भी नाम मात्र को घटाया बढ़ाया है वह नीचे लिखा जाता है । मूल में कुछ नहीं घटाया बढ़ाया है अतएव यहां मूल नहीं लिखा है। उक्ति नायका की । कै मेरे घर काहे को आए ग्रह नछत्र वेद मिलि ४० का मन कूट ईकारांत अकारांत लघु होत है जाके घर मनि है सो दीप नाहीं सम्हारत ॥ गिरजापति भूषन चंद चाहि तारे नाहीं देषत । आन सुगम सपतनी को अस्तुत अनुचित भाव सों शृंगार को अंग याते ऊर्जस ॥ ४६ ।। __ भामिन आजु भवन में बैठी। मानिक निपुन बनाये नीकन में धनु उप- मेय उमेठी ॥ भूषनपितुपितसुत अरि पतनी माता ओर निहारे । पचर पिलौना हित सिंगार जग मनसरूष ले धारे । बासव मुत अरि के सुभाव सब कहत सुनत गुन ताही । विथक पुत्रभ्रातपितपतनी करत सोने को नाही ॥ तहं ब्रजचंद आई गौ देषत रही न काहू रोकी। सूरस्याम पर गई बारने निरष कोक जनु कोकी ॥ ११२ उक्त सषी की सषी से कै हे सषी भामिनी जो है सो आजु भवन में बैठी है मानिक नाम लाल बनाये है नीकन अछन कहे नेत्र अर्थ लाल