पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। १२१ । षिनि मुष कौं तारिहै। किसलय कुसुम कुंत सम सायक पावक पवन बिचा- रिहै। द्रुमवल्लो पहं दीप जुगवनि जननि अनल बिय जारिहै॥ मवरजु एक चलत चपरि कर भरि बंदुष षग डारिहै। पुनि पुनि बाज साज सुनि सुंदरि सित तिनहिं देषे मारिहै ॥ विरह बिभूति बढी बनि तब प्रसीस जटा बन बारिहै। मुष ससि सेष रह्यो सित मानौ भई तभी उन हारिहै ॥ जौन इतै पर चलहु कृपानिधि तो वह निज कर सारिहै। सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि तुम तजि काहि पुकारिहै ॥४॥ ____ मनसिज इति । उक्ति सपी की नाइक सों कि मनसिज जो काम सो मान को मारिहै । त्रोट कही समै में । सूच्याभिन्ने पनपत्रे धीरिति विधीयते सूची जो सूई ताकरि पुरइन को पात वेथ्यो जाय तिलने काल कौं। त्रुटि कहत हैं कइक त्रुटि को लब होत है । अरु कइक लव को निमिष होतहै। अरु कैयक पल की घरी होति है सो त्रुटि लव के अंतर में ततपर होकर मौ उर कही मौन बाजा जे मौन ते बाज भई तन कोप तें काल में मारि है अथवा प्रलय की बराबरि होय है। अर तत्पर अर करें हठ तत्पर कहै जुक्त ताकी मोरनि कहैं मेरनि तासों मुष तारिए कहै