पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

PAL [ १३० । सुतपति ताके सुतहिं मनावति । हरि- बाहन के मीत तासु पति ता पति तोहि बुलावति॥ राकापति नहिं कियो उदो सुनि या सम ये नहिं आवति । बिबिधि बिलास अनंद रसिक सुष सूर- स्याम तेरे गुन गावति ॥१३॥ राधे हरिरिषु इति । सपी की उक्ति की राधे हरि विष्णु तिन को रिपु मधु मधु कहैं मान सो क्यों न दुरावति । सारंग जल ताके सुत चंद्रमा ताको बाहन मृग ताकी सोभा है । जिन में ऐसे नेत्र तिन में सारंग दीप ताको सुत काजर ताहि क्यों नहीं लगावति । सैलसुता नदी ताके पति समुद्र ताको सुत चंद्रमा ताको पति सूर्य ताको सुत सनीचर तासु नाम मंद सो मंदता मनावति है हरि इंद्र तासु बाहन मेघ ताको मीत जल ताको पति बरुण ताको पति कृष्ण सो बुलाव है ॥ १३ ॥ राग नट। राधा तें बहु लोभ कग्रौ। लावनस्थ ता पति आभूषन आनन अोप हगो॥ भृकुटि कोदंड अवनि धरि चपला बिबस ह्व कोर अग्री। पिक मृनाल अरि ता अरि रूप सम ते बपु आप धग्रौ॥ जल- चर गति मृगराज सकुचि जिय सोच न जाइ पग्रौ । सूरदास प्रभु को मिलि भामिनि निसि सब जात टग्रौ ॥ १४ ॥