पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४७

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सूरदास प्रभु बिनु देषे दुषनैननि नीर बह्यौ ॥३१॥ प्रीति करी इति । नायका की उक्ति । प्रीति करि काहू सुष नाही लह्यौ । पापी दीप सो प्रीति करि आपनो सरीर दह्यौ औ भ्रमर कमल सो प्रीति करि आप कमल संपुट ते बझ्यौ औ सारंग हरिन सारंग राग सों प्रीति करि सामुहे बान को स.यो । औ हम प्रीति जौ करीमाधो सों सो चलत से कछ नहीं कहा। सो सूरदास प्रभु कृष्ण तिन के बिन देषे दुष करि नैनन सौ नीर बहे है ।। ३१॥ राग नट। - ग्वालिनि छांडि देधि बहु षग्रौ। तेरे विरह विरहिनी व्याकुल भवन काज विसग्रौ॥ कर पञ्जय ते पतिरथ यो मृग पति वैर करो ॥ पंयोपति सबहो सकु- चाने चाबिक अनग नौ। सारंगसुत सुनि भयो वियोगी हिम कर गरब टग्रौ। सूरदास सागरसुत हित पति देषत मदन हग्रौ ॥ ३२ ॥ __ ग्वालिन इति । हे ग्वालिनि तोकों देषि दोष कहैं विरोध छोडि षड्यो है । औ करपल्लव तें उडपति ने रथ मृग पैंच्यौं है । अपनी पति सों बैर कन्यौ है अर्थास मलीन भयो है । पक्षी और पति कहै अपनी मरजाद सो सकुचाने हैं एक चातकै अनंग सों भरो है । ताको पी वैन सुनि सारंग जो चंद आपै वियोगी भयो है । औ हिम कहैं सीत ताको करिबे को गरब टरि गयो । सागरसुत चंद ताके हित नक्षत्र तिन की पति दीनि सों देषतै मदन हरिलयो ॥ ३२॥