[३४] बान कमान ल्यायो करषि कोप चिढ़ा- य॥ दिवसपतिसुतमात अवधि बिचार प्रथम मिलाय । बान पलटत भानुजा तट निरषि तन मुरझाय ॥ उदित अंजन पै अनोषी देव अगिन जराय। आदि को सारंग बेरी कटु प्रथम देषराय॥ कौन रापनहार बृज बृजराज बिनु प्रन भाई । सूरदास को सुजन का सी कहो कंठ लगाय ॥३२॥ विरहिन नायका की उक्ति । प्रिय कृष्ण बिना बाय बैरी बहत है। मदन बान कमान में करपि आयो कोप सो चढ़ायो दिवसपति सूर्य सुत करनं मात कुंती कहै बरछी अवध करार बिचार लागत है। प्रथम मिलये कहे प्रथमही संजोग को वियोग । भानुजातट जमुनातीर बान पलटत कहै प्रकृत विपर्ये होइ है। निरपत ही कहे देषत ही तन मुरझाय कहे मूर्छा होत है यह बिरह दसा में प्रकृत विपर्ये में मूर्छा आदि को सारंग बैरी संजोग दसा को चंद सो प्रथम कहे पहेले ही कटु कहे तीछनता देखावही वियोग में ब्यंग ते सूचित भयो की मेरी मुख सो याको मान हीन भयो तासो या समय बैर लेय है उदित अंजन दये पर अनोषी कहे अपूर्व आगि सी दरसाय है नाम देषाय है तात्पर्य यह की अंजन मति दे अब ताते कौन रापनहारो है हज में वृजराज विनु हमारो प्रन कहे नेम तिन को भाय सूरदास कवि को ऐसो सुजान है जासो मैं कंठ में लगाइ कै कहो ॥ ३२॥ टिप्पणी-सरदार कवि ने इस पद के अर्थ में कुछ घटाया बढ़ाया है वह ज्यों का त्यों नीचे लिखा जाता है।
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