पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/४

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सत आय । सुद्ध आषर भरत ग्रीषम रीमुन मद्दे साय ॥ भानुत्रियजननी सु हित को सहचरी गुन लेत । प्रथमहिं उपमान सारंग सो करावत हेत।हान दिनपति सीस सोभारंच राजत आज । सूर प्रभु अग्यान मानो छपी उपमा साज ॥२॥ हरि उर पलक इति या पद वि उक्त ते मुग्धा नाइका लुप्ता अलं- कार होत है। ___ दोहा-नव जोवन को आगमन, मुग्धा कहिये ताहि । इक बिन दो विन तीन विन, लुप्ता भूषन आहि ॥ हे हरि पलक धीर धारो तिहारे हेत मनसिज सव वाके अंग में शोभा धरत है भूमसुत केवांच अरि बानर मित्र राम शत्रु रावन पुर लंका लंक जो कटि है ताते सुअच्छर सुवरन निकासे है ग्रीषमरिपु पयोधर कुचन में भरत है भान ते तीसरे मंगल ताकी जननी भूमि ताके हित घन ताकी सहचरी बिजुरी ताको गुन चंचल ताके करै प्रथम पहिल ताते सारंग मृग है जाके उपमान ऐसे नेत्रन में धरत है अर्थ चंचल करे है हान दिन रात को पति ससि कैसी सोभा रंचक थोरी राजत है मुष में इहां मुष उपमेय नाही है ससि उपमान सी वाचिक ताते लुप्ता है अज्ञान कहै अज्ञात छबि उपमा ते लुप्तोपमारीति। टिप्पणी-इस दूसरे पद में भी थोड़े अक्षर मूल और टीका में बदलकर सरदार कवि ने लिखा है। हरि उर पलक धारो धीर । हित तिहारे करत मनसिज सकल सोभा तीर ॥ भूमिसुत अरि मित्ररिपु पुर तें निकासत आप । सुद्ध आषर भरत ग्रीषम रिपुनः मध्ये साप | भानुत्रय जननी सु हित की सहचरी गुन लेत । प्रथम ही उपमान सारंग सो करावत हेत ॥ हान दिनपति सी सुसोना रंच राजत आज । सूर प्रभु अज्ञान मानो छपी उपमा साज ॥ २ ॥